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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १३७ के समीप में मुकुन्द नामक वृद्ध ब्राह्मण दीक्षा को ग्रहण कर रात्रि में अत्यंत ऊँचे स्वर से पढते हुए गुरु के द्वारा इस प्रकार से निषेध कीये गये कि- हे वत्स ! रात्रि में ऊँचे स्वर से अध्ययन करना उचित नहीं हैं । अब वें दिन में भी ऊँचे शब्द से पढ़ते हुए श्रावकों के द्वारा कहे गये- क्या ये मूसल को पुष्पित करेंगे ? उससे अत्यंत खेदित हुए और विद्या की स्पृहावालें उन्होंने सरस्वती देवी के आगे इक्कीस उपवास कीये । देवी ने संतुष्ट होकर कहा- सर्व विद्याएँ सिद्ध हो, मैं तप से तुझ पर संतुष्ट हुई हूँ। चौराहे पर मूसल को प्रासुक जलों से अभिषेक कर मुनि ने कहा हे सरस्वती ! तेरी कृपा से जो हमारे जैसे भी जड़, वादी और पंडित होतें हैं, तब यह मूसल पुष्पित हो । इस प्रकार के मंत्र से उसे पत्र, पुष्प और फल से युक्त किया । जैसे गरुड़ के नाम से सर्प आतंकित होते है वैसे ही तब उनके नाम से ही वादी भय-ग्रस्त होने लगें । गुरु ने उनको स्व-पद के ऊपर स्थापित किया । इस ओर विक्रमार्क को मान्य देवर्षि ब्राह्मण है और उसकी पत्नी देवश्री है । उन दोनों का सिद्धसेन नामक पुत्र बुद्धि के निधानपने से और मिथ्यात्वीपने से जगत् को भी तृण के समान गिन रहा था । क्योंकि बिच्छू विष मात्र से भी कंटक को ऊँचा करता हैं और हजारभार विष के होने पर भी वासुकि नागराज गर्वित नहीं होता । जो मुझे वाद में जीतेगा, मैं उसका शिष्य बनूँगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा को वहन करता हुआ, क्रम से वृद्धवादी की कीर्ति को सुनकर और उसे सहन नहीं करते हुए उनके संमुख सुखासन पर बैठकर तथा अनेक छात्रों से घेरा हुआ भृगुपुर के समीप में गया । वहाँ मार्ग में वृद्ध-वादी मिलें । परस्पर आलाप होने पर सिद्धसेन ने
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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