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उपदेश-प्रासाद - भाग १ वाणी से युक्त वादी ने कितने ही स्व-पक्ष के उपन्यास के प्रान्त में श्रीदेवपाद से पूछा । उन्होंने बृहद् उत्तराधयन की वृत्ति से चौरासी विकल्पों का उच्चार किया । उनके वचनों को अवधारण करने में असमर्थ हुए दिगंबर-वादी ने फिर से भी उसी उपन्यास की प्रार्थना की । श्रीदेवाचार्य ने अनेक युक्तिओं से उसका तिरस्कार किया, उससे मैं जीता गया हूँ इस प्रकार से स्वयं ने उच्चार किया। सिद्धराज के द्वारा पराजित व्यवहार पद से अपद्वार से निकाला जाता हुआ आर्त्तध्यान को प्राप्त कर क्रम से मरण प्राप्त हुआ । राजा ने बड़े उत्सव-पूर्वक सूरि की प्रशंसा की और वें जिन-शासन की प्रभावना करने लगे।
__ वादी रूपी हाथी के लिए सिंह के समान और स्याद्वाद रत्नाकर ग्रंथ के निर्माता श्रीदेवसूरि यहाँ वाद में कुमति से युक्त और दिगंबर कुमुदचन्द्र को जीतकर जिन-शासन की शोभा को प्राप्त की
थी।
इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद की वृत्ति में द्वितीय स्तंभ में अट्ठाइसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
उन्तीसवाँ व्याख्यान अब वाद के योग्य पुरुष का स्वरूप प्रकाशित किया जाता है
शासन में जो नय, न्याय और प्रमाण कहें हुए हैं, उनको वैसे ही जो जानता हैं, वह वाद में कुशल होता है ।
इस विषय में वृद्धवादिसूरि का उदाहरण हैं। विद्याधर गच्छ में श्रीपादलिप्तसूरि के कुल में स्कन्दिलाचार्य