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उपदेश-प्रासाद - भाग १ का इस शिशु के साथ कौन-सा वाद ? यह सुनकर श्रीहेमाचार्य ने कहा- मैं ही बड़ा हूँ और तुम ही शिशु हो जो अब भी कमर के डोरे को भी नहीं लेते हो और निर्वस्त्र हो ।
इस प्रकार राजा के द्वारा उन दोनों के वितंडा के निषेध करने पर परस्पर शर्त-बंध हुआ कि-पराजित हुए श्वेतांबरों के द्वारा दिगंबरत्व अंगीकार करना चाहिए और दिगंबरों के द्वारा देश-त्याग।. इस प्रकार शर्त-बंध के पश्चात् स्व-देश के कलंकसे भयभीत, सर्व अनुवाद के परिहार में तत्पर और देश अनुवाद में परायण देवाचार्य ने प्रथम उससे कहा कि- तुम पक्ष को कहो ! तब उसने
सूर्य जहाँ जुगनू के समान कान्ति को कर रहा है, जहाँ चन्द्र जीर्ण हुए मकड़ी के जाल की छाया का आश्रय ले रहा है और जहाँ पर पर्वत मच्छरपने को प्राप्त कर रहा है, इस प्रकार हे राजन् ! आपके यश समूह का वर्णन करते हुए आकाश स्मृति के गोचर हो आया, और वह आपके यश-समूह में भ्रमर के समान आचरण कर रहा है, उससे वचन मुद्रित हो गये।
__ इस प्रकार से कुमुदचन्द्र ने राजा को आशिष दी। वचन मुद्रित हो गये, इस प्रकार के उसके अपशब्द से सभ्य उसे स्व-हस्त का बंधन मानते हुए आनंदित होने लगें । तब देवाचार्य ने कहा
नारीयों को मुक्ति-पद का विधान करता हैं तथा श्वेतांबरों से उज्ज्वल होता हुआ, वृद्धि प्राप्त करती हुई कीर्ति से मनोहर, नय-पथ के विस्तार भंगी का गृह और जिसमें पर वृद्धि का निर्माण करनेवालें केवली हैं ऐसा वह जिन-शासन और जिसमें सदा हाथी अत्यंत बहाव का निर्माण कर रहें हैं ऐसा आपका राज्य हे चौलुक्य ! चिर समय तक जीये।
इस प्रकार से राजा को यह आशिष दी । स्खलित होती हुई