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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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द्वारा रोका गया है । तो क्यों वृथा ही कर्कश तर्क रूपी क्रीड़ा में यह अनर्थ की मूलवाली तेरी अभिलाषा हैं ?
इस प्रकार से उपहास - पूर्वक कुमुदचन्द्र के प्रति भेजा । राज-पत्नी भी नग्न पक्ष से सहमत हुई नित्य ही कुमुदचन्द्र के जय के लिए सभ्यों से उपरोध करती हुई उसके पक्षपात को उज्ज्वल करने लगी। तत्पश्चात् कुमुदचन्द्र ने इस प्रकार से भाषा में लिखकर भेजा कि
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केवली होकर भोजन नहीं करतें हैं, वस्त्र सहित को निर्वाण है और स्त्री होकर भी सिद्ध नहीं होती है, यह कुमुदचंद्र का मत हैं । तब श्वेतांबरों ने उत्तर दिया
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केवली होकर भी भोजन करतें हैं, वस्त्र सहित को भी निर्वाण नहीं है और स्त्री होकर के सिद्ध होती है, यह देवसूरि का मत हैं । निर्णय वाद स्थल और दिन के हो जाने पर तथा श्रीसिद्धराज के समीप में षड्दर्शन प्रमाण के जानकार सभ्यों के उपस्थित हो जाने पर जिसके आगे ढोल बज रहा है ऐसे कुमुदचन्द्र वादी राजसभा में राजा के द्वारा अर्पित कीएँ हुए सिंहासन पर बैठा । सभा में हेमचन्द्र मुनीन्द्र के साथ प्रभु श्री देवेन्द्रसूरि ने एक ही सिंहासन को अलंकृत किया ।
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आयु में बड़े स्वयं दिगंबर - वादी ने लेश - मात्र से शिशु अवस्था को व्यतीत करनेवाले श्रीहेमचन्द्र से पूछा- तुमने छाश पीली है । श्रीहेमाचार्य ने उससे कहा कि - हे जड़ - मतिवालें ! क्यों तुम असमञ्जस कह रहे हो ? छाश सफेद होती है और हल्दी पीली होती है । इस प्रकार के वाक्य से नीचे कीये गये कुमुदचन्द्र ने पूछातुम दोनों में कौन वादी है ? उसके तिरस्कार के लिए श्रीदेवसूरि ने कहा- यह तुम्हारा प्रतिवादी हैं । तब कुमुदचन्द्र ने कहा- मुझ वृद्ध