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________________ १३३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ दिगंबर वाद स्थल में आपके द्वारा चौरासी विकल्प जालों का उपन्यास कीये जाने पर उस दिगंबर का मुख मुद्रित होगा। किस शास्त्र में यह कुशल है, यह जानने के लिए देवसूरि ने रत्नप्रभ नामक प्रथम शिष्य को गुप्त वृत्ति से कुमुदचन्द्र के समीप में भेजा । वें रात्रि के आरंभ में गुप्त वेष से वहाँ पर गये । कुमुदचन्द्र ने पूछा-तुम कौन हो ? उसने कहा- मैं देव हूँ। देव कौन है ? मैं हूँ। मैं कौन हूँ ? तुम कुत्ते हो । कुत्ता कौन है ? तुम ! तुम कौन हो ? मैं देव हूँ। इस प्रकार चक्र के भ्रमण के समान घूमाते हुए अपने को देव तथा दिगंबर को कुत्ते के रूप में संस्थापित कर जैसे आये थे वैसे ही चलें गये । उस चक्र दोष के प्रादुष्करण से विषाद के संपर्क से - हे श्वेत वस्त्र-धारी ! क्यों यह मुग्ध जन विकट आडंबर से युक्त उक्ति रूपी टाँकनों से अति-विकट इस संसार रूपी आवट के कोटर में गिराया जाता हैं ? जो तुम्हें लेश-मात्र में भी तत्त्व-अतत्त्व की विचारणाओं में उत्कण्ठा हैं, तो तुम सत्य ही दिन-रात कुमुदचन्द्र के चरण युगल का ध्यान करो। __इस प्रकार उसके उचित कविता का निर्माण कर कुमुदचन्द्र ने सूरि के प्रति भेजा । तत्पश्चात् उनके चरण के परमाणु समान और बुद्धि वैभव से चाणक्य से अधिक पंडित माणिक्य ने लिखा कौन पैर से सिंह के कंठ के केसर सटा भार को स्पर्श कर सकता हैं ? कौन तीक्ष्ण भाले से नेत्र-कुहर में खुरचने की इच्छा करता हैं ? नागेन्द्र के शिरो-मणि आभूषण रूपी लक्ष्मी के लिए कौन तैयार होता है ? जो वन्दनीय श्वेतांबर शासन की यह निन्दा कर रहा है। रत्नाकर ने इस प्रकार से लिखायुवति-जन को मुक्ति-रत्न जो प्रकट तत्त्व हैं, वह नग्नों के
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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