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उपदेश-प्रासाद - भाग १
एक दिन देश-त्याग प्रतिज्ञा पूर्वक वलभी में वाद होने पर भाग्य से बौद्धों के द्वारा जीतने पर सर्व जैन-मुनि विदेश में चले गये । राजा बौद्ध हुआ । पति की मृत्यु से विरक्त हुई उसकी बहन ने पुत्र सहित दीक्षा ग्रहण की । किसी प्रकार से मल्ल ने नयचक्र ग्रन्थ को प्राप्त कर तथा बौद्धों को जीतकर शिलादित्य को स्व शिष्य किया । _ हे भव्य-प्राणियों ! जिन-शासन के तेज की समुन्नति से पवित्र इस श्रीमल्लवादी के चरित्र को सुनकर कवित्व, वचन आदि विचित्र लब्धि से आर्हत् जिन-शासन को दीप्तिमंत करो।
इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद की वृत्ति में सत्ताईसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।
अट्ठाइसवा व्याख्यान इस विषय में अन्य भी प्रबन्ध प्रकट किया जाता है
बुद्धिशाली महात्मा के द्वारा तर्क से कर्कश वाक्य से शासन की उन्नति के लिए शीघ्र ही वादी जीतें जाएँ।
भावार्थ तो इस प्रबंध से चिन्तन किया जाय
पाटण में श्रीसिद्धराज की सभा में दिगंबर कुमुदचन्द्र वादी आये। ये नाना के गुरु हैं, इत्यादि से राजा ने उनका सत्कार किया और वें राजा प्रदत्त आवास में ठहरें । राजा ने हेमचन्द्रसूरि को वाद करने के लिए पूछा । उन्होंने श्रीदेवसूरि को वादी-विद्या के जानकार और वादी रूपी हाथी के लिए सिंह के समान कहा ।
राजा ने चर पुरुषों से श्रीदेवसूरि को आह्वानित किया । पाटण में आकर राजा के अनुरोध से उन्होंने वाग्-देवी की आराधना की। उसने कहा- वादी वैताल श्रीशांतिसूरि कृत उत्तराध्ययन की वृत्ति में