SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ १३६ सर्वज्ञ - पुत्र की परीक्षा के लिए विक्रमार्क ने मन से ही नमस्कार किया। सूरि ने उनके धर्म - लाभ कहा । तब राजा ने कहा कि - हे सूरीन्द्र ! नमस्कार नहीं करनेवाले मुझे भी आप धर्म-लाभ कैसे दे रहे हो ? सूरि ने कहा- करोड़ों चिन्तामणियों से भी यह दुर्लभ हैं और तुमने मन से ही हमको नमस्कार किया था, उससे मैंने तुमको धर्मलाभ दिया हैं । - यदि तुम दीर्घ आयुवान् हो इस प्रकार से वर्णन किया जाता है, तो वह नारकों को भी है । यदि तुम संतान के लिए पुत्रवान् हो इस प्रकार से कहा जाये तो वह मुर्गों को भी हैं । म्लेच्छ कुल का आश्रय करनेवाले राजा में भी संपूर्ण धन दिखायी देता हैं, उस कारण से सर्व सुख-प्रद श्री धर्म-लाभ तुम्हारी समृद्धि के लिए हो । दूर से ही हाथ को ऊँचा कर सिद्धसेनसूरि के द्वारा धर्मलाभ के कहने पर संतुष्ट हुए राजा ने कोटि द्रव्य दिया । निःसंगी उन गुरुओं के द्वारा उस द्रव्य का अंगीकार नहीं करने पर, संघों के द्वारा जीर्णोद्धार आदि में उपयोग किया गया । अब सूरि चित्रकूट में गये । वहाँ पर एक स्तंभ हैं। उसके मध्य में पूर्व आम्नाय की पुस्तक गुप्त की गयी थी । उस स्तंभ को जल आदि से अभेद्य और औषधमय देखकर, सूरि ने उसकी गंध को ग्रहण कर और प्रति-औषधियों के द्वारा सिंचन कर उसे कमल के समान विकसित किया । वहाँ एक पुस्तक को खोलकर पढते हुए उनके द्वारा आद्य पत्र में दो विद्याएँ देखी गयी । एक सर्षप - विद्या थी, जैसे कि यहाँ कार्य के उत्पन्न होने पर मांत्रिक जितनें सरसवों को अभिमंत्रित कर जलाशय में डालता हैं, उतने ही अश्ववार निकलकर और पर- सैन्य को जीतकर अदृश्य हो जाते हैं । और द्वितीय चूर्ण के योग से कोटि स्वर्ण निष्पन्न होते हैं । आगे वांचते हुए उनको निषेध कर देवी ने
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy