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उपदेश-प्रासाद - भाग १
१३० अजित, यशोयक्ष और मल्ल को प्रतिबोधित कर प्रव्रज्या ग्रहण करायी । नयचक्रवाल के बिना उन्होंने सर्व शास्त्र पढें । उन तीनों के मध्य में विशेष से मल्ल प्राज्ञ हुए थे । पाँचवें पूर्व से उद्धृत और सअधिष्ठायक द्वादश-आर नयचक्र ग्रन्थ जो प्रति-आरे से बड़े उत्सव से पढ़ने योग्य और कोश में स्थित है, वह किसी को भी मत दिखाना, इस प्रकार से बहन साध्वी को अच्छी प्रकार से भलामन कर गुरु ने अन्यत्र विहार किया । मल्ल ने कुतूहल से रहस्य में उस पुस्तक को खोलकर जब
विधि, नियम, भंग और वृत्ति के व्यतिरिक्तपने से अनर्थ कहा है। जैन से अन्य शासन असत्य है, इस प्रकार से विधर्मता हैं।
इस प्रथम आर्य को पढ़ा तब श्रुतदेवी ने पुस्तक हरण कर ली और वें उससे अति-खेदित हुए । वें माता और संघ के द्वारा उपालंभ दीये गये । ग्रन्थ की प्राप्ति तक उन्होंने विगई का निषेध किया । इस प्रकार से वें केवल वल्ल अन्न से पारणा करते हुए तप करने लगें। चातुर्मासी के पारणे में संघ ने अति आग्रह कर विगई ग्रहण करायी । संघ के द्वारा आराधना करने पर रात्रि के समय में परीक्षा करने के लिए श्रुतदेवी ने पूछा-कौन मधुर है ? मल्ल ने उत्तर दिया-वल्ल ! छह मास के अंत में पुनः पूछा-कौन नहीं हैं ? तब उन्होंने कहा- गुड और घी नहीं हैं। उनकी धारणा से संतुष्ट हुई श्रुतदेवी ने कहा- वर माँगो, तब मल्ल ने कहा- नयचक्र पुस्तक दो । देवी के द्वारा दी गयी पुस्तक को प्राप्त कर वें अधिक शोभित होने लगें । गुरु ने मल्ल को सूरि पद पर स्थापित किया । उन्होंने चौबीस हजार श्लोक मित पद्मचरित्र की रचना की।
भृगुकच्छ में शिलादित्य राजा के समीप में छह मास पर्यंत (किसी ग्रन्थ में छह दिन तक) बुद्धानन्द के साथ वाद किया । नयचक्र