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________________ १२८ उपदेश-प्रासाद - भाग १ विशेष आराधना करने लगें । तो भी विकार से प्रबल इन्द्रिय को जानकर चारित्र की रक्षा के लिए पर्वत पर चढकर और झंपापात में तत्पर उनको हाथ में पकड़कर तथा अन्यत्र रखकर देवी ने कहाव्यर्थ ही मरण का प्रयत्न कर रहे हो, भोग को भोगे बिना मरण प्राप्त नहीं करोगे। एक दिन छट्ट के पारणे में अनाभोगपने से अकेले ही गणिका के घर में प्रवेश किया। उन्होंने धर्म-लाभ का उच्चार किया । वेश्या ने हास्य पूर्वक कहा- हमें धर्म-लाभों से कार्य नहीं, केवल द्रव्यलाभ हो । यह भी मेरा उपहास कर रही है ? इस प्रकार के गर्व समूह से मुनि ने छत के ऊपर से तृण को खींचकर लब्धि से दश करोड़ मित रत्न गिराये । तब वेश्या भी उनके पैरों में भ्रमरी के समान विलग्न हुई कहने लगी कि- हे प्राणप्रिय ! अनाथ और अनुरागी मेरा त्याग आपको योग्य नहीं है । महात्मा भी उसके उल्लापों से रागी हुए और भोग फल को जानकर उस वेश्या को स्वीकार किया । वहाँ-मैं प्रति दिन धर्म के उपदेश से दस नयें विट पुरुषों को प्रतिबोधित कर और दीक्षा ग्रहण कराकर भोजन करूँगा, इस प्रकार का अभिग्रह लिया । मुनि वेष का त्याग कर और उस वेश्या के साथ में भोगों को भोगते हुए प्रति दिन दस-दस लोगों को प्रतिबोधित कर दीक्षा को ग्रहण करातेंथें । एक दिन बारह वर्ष के अंत में भोजन वेला के हो जाने पर भी जब दसवाँ स्वर्णकार पुरुष प्रतिबोधित नहीं हुआ, तब दोतीन बार सिद्ध हुए अन्न के भी विरस हो जाने पर वह वेश्या उनको बार-बार आह्वान करने लगी । तब उसने कहा- आज दसवाँ पुरुष प्रतिबोधित नहीं हो रहा है । वेश्या ने हास्य पूर्वक कहा कि- हे स्वामी! आज आप ही दसवें पुरुष बनो । उसने हाँ कहा। आग्रह करती हुई उस वेश्या को तृण के समान छोड़कर पुनः
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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