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उपदेश-प्रासाद - भाग १
१२७ उसे नियंत्रित करने के लिए श्रेणिक परिवार सहित उसके पीछे चलने लगा, परंतु वह दुर्मती हाथी किसी के द्वारा भी वश करने में समर्थ न हो सका । तब राजा के आदेश से नन्दिषेण कुमार ने उसे शिक्षा दी-आत्मा का ही दमन करो, इत्यादि से संबोधित कीये जाने पर उस कुमार को देखकर-किसी स्थान में यह मेरा कोई संबंधी था, इस प्रकार ऊहापोह के वश सेजाति-स्मरण ज्ञान प्राप्त कर शान्त ही रहा । तब कुमार ने उसे लाकर आलान स्तंभ में बाँधा । उसे देखकर श्रेणिक आदि को विस्मय हुआ।
इस बीच श्रीवीर जिन का वैभार-पर्वत पर समवसरण हुआ। श्रेणिक, अभय और नन्दिषेण आदि वन्दन करने के लिए गयें । देशना के अंत में श्रेणिक ने स्वामी के आगे हाथी के उपशान्ति के विषय में प्रश्न पूछा । जिनेश्वर ने पूर्व भव के लाख ब्राह्मणों का भोजन और साधु दान आदि का व्यतिकर कहा । पुनः आगामी भव के प्रश्न के कीये जाने पर जिन ने कहा कि- हे राजन् ! न्याय से प्राप्त हुए वित्त का सुपात्रदान के विनियोग से नन्दिषेण कुमार अनेक दिव्य भोगों को भोगकर
और संयम का पालन कर तथा स्वर्ग को प्राप्त कर क्रम से सिद्धि सुख को प्राप्त करेगा । किन्तु हाथी का जीव पात्र-अपात्र के विवेक रहित दान से भोगों को प्राप्त कर और मरण प्राप्त कर प्रथम नरक गामी होगा। यह सुनकर प्रतिबोधित हुए नन्दिषेण कुमार ने श्रावक धर्मको स्वीकार किया । क्रम से दीक्षा को ग्रहण करता हुआ वह देवता के द्वारा-तुझे अभी बहुत भोग कर्म हैं, इस प्रकार के वचन से निषेध करने पर भी प्रव्रज्या ग्रहण की । प्रभु के द्वारा निषेध करने पर भी वह आग्रह से विरमित नही हुआ । आनंद से दीक्षा को स्वीकार कर दुष्कर तपों के द्वारा प्रभु के साथ विहार करने लगें । क्रम से अनेक सूत्र और अर्थ के जानकार हुए । उत्पन्न हुई भोग इच्छा को रोकने की इच्छा से