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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ १२६ प्रथम कल्प में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर राजगृह में श्रेणिक का नन्दिषेण नामक पुत्र हुआ । यौवन में पाँच सो राज- कन्याओं के साथ में पाणिग्रहण कर दोगुन्दक देव के समान सुंदर विषय सुख रूपी समुद्र में मग्न हुआ । इस ओर वह लाख ब्राह्मणों को भोजन करानेवाला और पापानुबन्धि-पुण्य का पोषण करनेवाला वह ब्राह्मण उस प्रकार के निर्विवेक दान से बहुत भवों में थोड़े भोग आदि सुख को भोगकर किसी अरण्य में हाथी हुआ । पूर्व में यूथ के स्वामी के द्वारा अनेक हाथियों के विनाशित करने पर हथिनी ने यूथ के स्वामी को ठगकर जन्म को प्राप्त हुए उस हाथी को तापस-आश्रम में छोड़ा । वहाँ तापस कुमारों के साथ में वृक्षों का सिंचन करने से तापसों ने उसका सेचनक नाम रखा । एक दिन यूथ के स्वामी पिता हाथी को मारकर उसने हथिनी यूथ को ग्रहण किया । माता के प्रपञ्च को जानकर उसने तापसाश्रम को तोड़ दिया । उसने सोचा कि तापस आश्रम के तोड़ डालने पर गुप्त-वृत्ति से भी कोई नूतन यूथ का स्वामी उत्पन्न नहीं होगा । खेद और आर्त्त हुए तापसों ने श्रेणिक को वह हाथी दिखाया। वह हाथी इस प्रकार से था - - चार सो और चालीस सुलक्षणोंवाला, भद्र - जातीय वह हाथी सप्त अंग में स्थापित करने योग्य हैं । राजा श्रेणिक ने भी किसी प्रकार से उस हाथी को ग्रहण कर पट्ट हस्ती किया । राज-योग्य आहार, बिछौनें आदि से सेवित किया हुआ वह हाथी सुखी हुआ । एक दिन तापसों के द्वारा - हमारें आश्रम को तोड़ने का यह फल हैं, इस प्रकार से मर्म की स्मृति कराने पर वह हाथी स्तंभ को उखाड़कर निकल गया और फिर से भी तापस - आश्रम को तोड़ दिया ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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