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उपदेश-प्रासाद
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भाग १
छब्बीसवाँ व्याख्यान
अब उपदेश लब्धि गुणवाले नन्दिषेण मुनि का प्रबन्ध कहा जाता है
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किसी सन्निवेश में धन के समूहों से कुबेर की स्पर्धा करनेवालें किसी ब्राह्मण ने यज्ञ का प्रारंभ किया था । उसने लाख ब्राह्मणों की भोजन सामग्री को सज्जित कर रखी थी । वहाँ सहायता के लिए किसी जैन दान रुचिवालें निर्धन ब्राह्मण से- लक्ष ब्राह्मणों की भोजन की समाप्ति में, मैं तुझे अवशिष्ट अन्न, घी आदि दूँगा, इस प्रकार से प्रतिज्ञा कर स्थापित किया । क्रम से लाख ब्राह्मणों की भौंजन की समाप्ति होने पर शेष रहे हुए अन्न आदि को न्याय से आये और प्रासुक जानकर उस निर्धन ब्राह्मण ने सोचा कि - यह उचित हैं, जो यह किसी सत्पात्र को दिया जाय, तब बहुत फल होगा । जो कृपावंतों के द्वारा कहा गया है कि
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न्याय से प्राप्त हुए और कल्पित अन्न-पान आदि द्रव्यों का श्रेष्ठ भक्ति से आत्मा - अनुग्रह की बुद्धि से संयतों को अतिथिसंविभाग मोक्ष-फल दायक होता हैं । तत्पश्चात् उसने दया-ब्रह्मचर्य आदि गुणों से युक्त कितने ही साधर्मिकों को भोजन के लिए निमंत्रित किया । उस भोजन के अवसर पर कोई महाव्रती मासक्षमण के पारणे में आये । उस ब्राह्मण ने सत्कार और श्रद्धा-पूर्वक - इन ब्राह्मणों से भी यह यति विशेष पात्र है, इस प्रकार से निश्चय कर वह अन्न-पान आदि उनको दिया । कहा गया है कि
हजार मिथ्यादृष्टियों में एक अणुव्रती श्रेष्ठ हैं, हजार अणुव्रतियों में एक महाव्रती श्रेष्ठ है, हजार महाव्रतीयों में एक तात्त्विक श्रेष्ठ है, तात्त्विक समान पात्र नहीं हुआ है और नहीं होगा । काल में आयु की समाप्ति होने पर सत्पात्र दान की महिमा से