________________
१२३
उपदेश-प्रासाद - भाग १ वचनवाली और चित्रों में रक्त हुई आनंदित करती हैं।
इस प्रकार से तृतीय दिवस होने पर शंखिनी का स्वरूप कहा और चौथे दिन हस्तिनी के स्वरूप को कहा ! उसके बाद गुरु ने कहा कि- हे कमल ! स्त्रीयों के अंगों में स्मरावस्थिति के बारे में सुनो
स्त्रीयों के अंगूठे में, पैर के टखने में, घुटने में, कमर में, नाभि में, वक्ष-स्थल पर, बगल में, कंठ में, कपोल में, ओष्ठ में, नेत्र में, बाल में और मस्तक में शुक्ल-कृष्ण के विभाग से दोनों पक्षों में स्त्रीयों के ऊर्ध्व-अधो गमन से अनंग की स्थिति को जानें ।
और स्मर-स्थान के ऊपर मर्दन की गयी वह शीघ्र ही वश में होती हैं । जैसे कि
वह लज्जा भी दोनों नेत्रों को झुकाती हुई और पति के वक्षस्थल पर पात को रोकती हुई, स्त्री की विभूषा को उत्पन्न करने लगी और संगति में विराम को प्राप्त हुई।
इस प्रकार से कभी शृंगार के वर्णन से और कभी इन्द्रजाल से श्रीपूज्य ने उसे रागवान् किया । मासान्त में विहार का अवसर होने पर सूरिने उसे कहा कि- हे कमल ! किसी नियम को लो ! उसने हास्य-रुचि से कहा- मुझे बहुत नियम हैं । वें जिस तरह से है- मैं अपनी वांछा से न मरूँ, पक्वान्न में केलुक आदि का भक्षण न करूँ, दूधों में थूहर पेड़ के दूध को न पीऊँ, अक्षत श्रीफल को मुख में न डालूँ, पर धन को ग्रहण कर अर्पण न करु, स्वयंभूरमण समुद्र से आगे न जाऊँ, अन्त्यज स्त्री का गमन न करे, इत्यादि ।
यह सुनकर गुरु ने कहा- हमारे साथ में भी हास्य अनेक भवों का निदान है । जैसे स्वर्णकार ने स्वर्ण को कुंडल आदि आकार से अनेक प्रकार से किया है, वैसे ही गुरु-आशातना भी जीव को गायपने से, नारकपने से, पानी के रूप से, पृथ्वी के रूप से, इत्यादि