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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ १२१ युक्ति-दृष्टांतों से दूसरे को प्रतिबोधित करता है, वह ही धर्मकथानुयोग के योग्य है, और पुनः घट के प्रदीपक के समान स्व का ही प्रबोधक नहीं, यह अर्थ हैं। इस विषय में यह सर्वज्ञ-सूरि का उदाहरण है श्रीपुर में श्रेष्ठ दर्शन को धारण करनेवाला श्रीपति श्रेष्ठी था । परंतु उसका कमल नामक पुत्र धर्म से पराङ्मुख, व्यसनी और गुरुदेवों को देखना पाप हैं इस प्रकार से वह मानता था । एक बार पिता ने उसे शिक्षा दी बहोत्तर कलाओं में पंडित पुरुष भी अपंडित ही है, जो सर्व कलाओं में भी प्रवर धर्म-कला को नहीं जानतें है। उसे सुनकर कमल ने कहा कि- हे पिताजी ! जीव कहाँ है ? स्वर्ग कहाँ है ? और मोक्ष कहाँ है ? यह सर्व भी गगन के आलिंगन प्रायः और घोड़े के सींग के समान हैं । जो पूज्यों के द्वारा तप और संयम अनुष्ठान की प्रशंसा की गयी है, वह अज्ञ जीवों को ठगने के लिए है, इस प्रकार से रटते हुए वह नगर के अंदर घूमने लगा। एक बार पिता उसे शंकरसूरि के समीप में ले गये । तब गुरु ने- हमारे संमुख ही देखो, इस प्रकार से कहकर धर्म-कथा के अनंतर उन्होंने पूछा कि- हे वत्स ! तूंने अल्प भी जाना है ? उसने कहा कि- हे भगवन् ! थोड़ा जाना है और थोड़ा नहीं । क्या कारण है ? इस प्रकार गुरु के द्वारा पूछने पर उसने कहा- आपके धर्म-कथा के कहने पर मैंने एक सो आठ बार चलती हुई गले की उपजिह्वा को गिनी है । कोई गड़बड़ी से युक्त शब्द शीघ्र-शीघ्र ही पढ़े गये थे, उससे मैंने उसके मध्य में वायु-नाड़ी चलने की संख्या को नहीं जाना था । इस प्रकार यह सुनकर लोग हर्षित हुए कि- अहो ! यह श्रेष्ठ श्रोता है । यह अयोग्य है, इस प्रकार से पूज्यों से उपेक्षित किया गया।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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