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उपदेश-प्रासाद - भाग १ सुखकारी होती है, और गुरु भव-भव में सुखकारी होते हैं, ऐसा विचारकर और उछलकर उसने रजोहरणको ग्रहण किया और तब तीन वर्षीय वज्र ने दीक्षा ग्रहण की । क्रम से आठ वर्ष व्यतीत होने पर और सूरि के भिक्षा के लिए चले जाने पर स्वयं वज्रमुनि ने साधुओं को वाचना दी । वज्र को महा-विद्वान् जानकर गुरु ने उनको समस्त शास्त्र पढाएँ । गुरु ने योग्य जानकर वज्रमुनि को सूरि-पद दिया । वाणी से पाँच सो यति प्रतिबोधित हुए । अनेक भव्योंने व्रतों को स्वीकार किया।
__इस ओर पाटलीपुत्र में धनश्रेष्ठी की पुत्री रुक्मिणी ने साध्वीयों से वज्रमुनि के अनेक गुणों को सुनकर कहा कि- मैं इस भव में वज्रस्वामी को ही प्राणनाथ करूँगी । एक बार स्वामी के समागमन को सुनकर धनश्रेष्ठी ने गुरु को नमस्कार कर विज्ञप्ति की - कोटि द्रव्य के साथ मेरी पुत्री से आप विवाह करो । नहीं तो वह मृत्यु प्राप्त करेगी। वज्रमुनि ने कहा- हम मल से भीगी हुई शरीरवाली स्त्री की वांछा नहीं करतें हैं । इत्यादि प्रकार से कन्या को प्रतिबोधित कर दीक्षित किया ।
___ एक बार बारह वर्षवाले दुर्भिक्ष के उत्पन्न होने पर व्याकुल संघ को देखकर वज्रस्वामी संघ को पट के ऊपर संस्थापित कर सुभिक्षवाली नगरी में ले आये । अन्य दिन वहाँ पर्युषण-पर्व के आने पर बौद्ध राजा ने जिन-चैत्यों में पुष्प का निषेध किया । तत्पश्चात् पर्युषण में श्रावकों के द्वारा विज्ञप्ति कीये गये वज्रस्वामी ने आकाशगामिनी विद्या से माहेश्वरी नगरी में स्व-पिता के मित्र माली के समीप में जाकर पर्वोत्सव के बारे में कहा । माली ने इक्कीस कोटि पुष्प दीये । पश्चात् हेमवंत पर्वत के ऊपर गये । वहाँ लक्ष्मीदेवी ने महापद्म दिया । हुताशन यक्ष के वन से पुष्पों को लेकर और मुंभक देवों के द्वारा कीये हुए विमान में स्थित हुए वज्रस्वामी ने वहाँ आकर महोत्सव किया। उन्होंने जिनधर्म की प्रभावना करते हुए बौद्ध राजा को श्रावक किया ।