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उपदेश-प्रासाद - भाग १ चारित्र की अभिलाषावाले हुए थे और तीन वर्षवाले जिन्होंने संघका सत्कार किया था, वें श्रीवज्र-नेता कैसे नमस्करणीय न हो ?
तुंबवन ग्राम में सुनन्दा भार्या को गर्भ सहित छोड़कर धन गिरि श्रेष्ठी ने दीक्षा ग्रहण की । सुनन्दा का पुत्र स्व जन्म के समय में ही पिता की दीक्षा को सुनकर जाति-स्मरण ज्ञान को प्राप्त कर माता के उद्वेग के लिए सतत ही रोने लगा । उसकी माता उस दुःख से पीड़ित हुई सोचने लगी कि- यदि इसके पिता आते हैं, तो उनको देकर मैं सुख से रहूँ।
इस ओर धनगिरि से युक्त सिंह गुरु वहाँ पर आये । मध्याह्न के समय में आहार के लिए जाते हुए धनगिरि को गुरु ने कहा किआज आप सचित्त-अचित्त ग्रहण में विचार न करे । यह सुनकर वें क्रम से सुनन्दा के गृह में गये । उसने मुनि को देखकर कहा कि- हे पूज्य ! आप अपने पुत्र को ग्रहण करो। इस प्रकार कहकर उस बालक को पात्र में रखा । वें धर्म-लाभ देकर गुरु के समीप में गये । गुरु ने दूर से महा-भार को देखकर और गोद में लेकर उसका वज्रकुमार नाम दिया । साध्वीयों की शाला में पालने में स्थित हुआ वह शिशु श्राविकाओं के द्वारा पालन किया जाता हुआ और साध्वीयों के द्वारा पढे जाते अग्यारह अंगों को वह पढ़ने लगा । इस ओर वज्र वहाँ तीन वर्षवाला हुआ । साधु भी वहाँ पर आये ।
एक बार सुनन्दा ने उनके समीप में पुत्र की याचना की । उन्होंने बालक को नहीं दिया । वह और श्रीसंघ राजा के पास में गये । राजा ने कहा कि- सभा के समक्ष बुलाया गया यह बालक जिसके समीप में जाता है, उसका यह पुत्र जानें । सुनन्दा ने द्राक्ष, शर्करा आदि को ग्रहण कर कहा कि- हे पुत्र ! आओ, आओ और इसे तुम लो। इस प्रकार प्रलोभन कीये जाते वज्र ने सोचा कि- इह-लोक में