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उपदेश-प्रासाद - भाग १ उसने पुनः पुस्तक को लिखकर उसका तिलकमञ्जरी नाम दिया । अन्य दिन धनपाल दूसरे गाँव में गया । एक बार किसी पंडित ने भोज की सभा में सभी पंडितो को भी तिरस्कृत किया। उससे खेदित हुआ राजा स्वयं जाकर और धनपाल का सन्मान कर ले आया । धनपाल को आया जानकर वह विद्वान् रात्रि के समय में भागकर चला गया। उससे जैन धर्म की प्रशंसा हुई । धनपाल भी सुख-पूर्वक स्थित हुआ और धर्म की आराधना कर क्रम से स्वर्ग में गया ।
द्रव्य से परिचय होने पर भी भाव से पाप-संगति निवारण की स्पृहावाला और जैन-धर्मी ऐसे धनपाल सत्कवि ने सर्व दोषों से रहित दर्शन को धारण किया था ।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में द्वितीय स्तंभ में पंचम दोष के त्याग में धनपाल कवि का कथानक संपूर्ण हुआ।
चौवीसवाँ व्याख्यान अब छटे प्रभावक अधिकार को प्रकाशित करते हैं, वहाँ पहले यह प्रवचन-प्रभावक का स्वरूप हैं
जो कालोचित और जिनेश्वर द्वारा कहे हुए आगम को जानते हैं, वें तीर्थ को शुभ में प्रवर्तक प्रावचनिक कहे जातें हैं।
___ काल में- सुषम-दुःषम आदि में, उचित-योग्य, श्रीजिन के द्वारा कहे हुए सिद्धान्त को गौतम आदि के समान जो सूरि जानतें हैं, वें तीर्थ के- चतुर्विध संघ के शुभ मार्ग में-धर्म मार्ग में प्रवर्तन करानेवाले प्रवचनवान् जानें जाय ।।
यह भावार्थ वज्रस्वामी के चरित्र से ही कहा जाता हैं। पालने में रहे हुए जिन्होंने श्रुत को पढ़ा था, छह मासवाले जो