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________________ ११६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ और कहा कि- श्रावक होने से तुम ज्ञान से सर्वज्ञ-पुत्र हुए हो। एक बार भोज राजा ने उसे पूछा कि- अब तुम्हारा मन व्यग्र क्यों है ? पंडित ने कहा कि- मैं अब श्रीयुगादि चरित्र को निबद्ध कर रहा हूँ। चरित्र के पूर्ण होने पर, उसे सुनते हुए राजा ने सोचा कि- इस चरित्र का अर्थरस भूमि के ऊपर न गिरे । इस प्रकार की बुद्धि से उसने पुस्तक के नीचे स्वर्ण पात्र को रखा । अमृत के समान उसके अर्थरस को पीते हुए व्यतीत हुए दिन-रात्रि को भी नहीं जानता था । पूर्ण सुनकर राजा ने कहा कि- यदि विनीता के स्थान पर अवंति स्थापित की जाती है और भरत के स्थान पर मैं स्थापित किया जाऊँ तथा आदिदेव के स्थान में ईश्वर स्थापित किया जाएँ तब यह ग्रंथ अत्यंत श्रेष्ठ हो जैसे कि सुगंधि स्वर्ण के समान और यदि तुम इस प्रकार से करोगे तो तुझे कोटि द्रव्य दिया जाएगा । यह सुनकर धनपाल ने कहा कि हे राजन् ! मेरु और सरसव में, हँस और काक में तथा गधे और गरुड़ में जैसे अंतर हैं, वैसे ही अवन्ति आदि और अयोध्या आदि का अंतर है। - अहो! इस प्रकार से कहते हुए तुम्हारी जीभ शत खंड को क्यों प्राप्त नहीं हुई ? तब रोष से पुनः पंडित ने कहा हे दो-मुख ! हे निरक्षर ! हे लोभ मतिवाले ! हे बाण सदृश ! हम और कितना कहें ? गुंजा फलों के साथ स्वर्ण की तुलना करते हुए आप पाताल में नहीं गये ? _इस प्रकार से निज-निन्दा को सुनकर क्रोधित हुए राजा ने उस मूल ग्रन्थ को भस्मसात् किया । अब दोनों प्रकार से निर्वेद को प्राप्त हुआ वह शोक सहित अपने गृह में आया । पुत्री तिलकमंजरी ने पूछा कि- हे पिताजी ! क्या दुःख है ? उसने सर्व कहा । पुत्री ने कहा- आप ग्रन्थ को लिखो, मेरे मुख में स्थित है । तब आनंदित हुए
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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