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उपदेश-प्रासाद - भाग १
___ यह सुनकर राजा विशेष कर क्रोध से लाल-नेत्रोंवाला हुआ। जब वह नगर के द्वार में आया, तब एक वृद्ध नारी बालिका के हाथ को पकड़ी हुई और काँपती हुई संमुख आयी । राजा ने उसे देखकर पंडितों से पूछा- यह सिर, हाथ आदि को किस लिए हिला रही है ? तब पंडित ने कहा- यह वृद्धा हाथ कँपा रही है और सिर को हिला रही है, यह क्या कह रही है ? वह यह कह रही है कि- जो अहंकार है, उसे तुम मत करो, मत करो । अन्य पंडित ने यह कहा कि
यह वामन-स्त्री वृद्धा-अवस्था रूपी यष्टि-प्रहार से कुब्ज हुई पद-पद पर गये तारुण्य रूपी माणिक्य को देख रही है।
राजा ने पूछा कि- हे वक्र-मतिवाले धनपाल कवि ! यह बालिका वृद्धा से क्या पूछ रही हैं ? राजा के क्रोध के त्याग के लिए उसने कहा कि- हे स्वामी ! यह वृद्धा इस कन्या के प्रति प्रश्नों का उत्तर दे रही हैं । जैसे कि
__ क्या यह शिव हैं, क्या विष्णु है ? क्या काम-देव है ? क्या नल है ? अथवा क्या कुबेर है ? अथवा क्या यह विद्याधर है ? अथवा क्या इन्द्र है ? क्या चन्द्र है ? अथवा क्या यह ब्रह्मा है ?
___ यह नहीं है, यह नहीं है और यह नहीं है, नहीं, नहीं और नहीं, यह भी नहीं है, यह नहीं है और यह नहीं है, किन्तु हे सखी ! स्वयं ही यहाँ क्रीड़ा करने के लिए प्रवृत्त हुए राजा भोज-देव है।
इस काव्य को सुनकर प्रसन्न हुए राजा भोज ने कहा कि- हे पंडित ! तुम माँगों! धनपाल ने कहा कि- मेरी अपहरण की हुई दृष्टि
आदि मुझे दो । राजा ने कहा- मैंने तुम्हारा कुछ-भी ग्रहण नहीं किया है। उसने कहा कि- हे स्वामी ! आपने हिरणी के वध में और सरोवर के वर्णन आदि में एक आदि नेत्र का कर्षण सोचा था, इसलिए आपने भाव से ग्रहण की है । तब आनंदित हुए राजा ने कोटि का दान दिया