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उपदेश-प्रासाद - भाग १
११४ निश्चय से स्वर्ग में जाते हैं, तो तुम माता, पिता, पुत्र तथा बांधवों से क्यों यज्ञ को नहीं करते हो?
यह सुनकर राजा ने क्रोध से धनपाल से कहा कि- अरे ! तुम क्या कह रहे हो ? उसने कहा कि- हे स्वामी ! मैं सत्य कह रहा हूँ। यूप कर, पशुओं को मारकर और रुधिर के कीचड़ को कर जो इस प्रकार से स्वर्ग में जाया जाय तो नरक में कौन गमन करेगा ? और अधिक यह है कि- हे देव ! मांस में लुब्ध और राक्षस के समान ब्राह्मणों ने ऐसे यज्ञ की प्रशंसा कर आपको कुमार्ग में ले गये हैं। ऐसे पशुओं के वध में कोई धर्म नहीं है और विपरीत केवल महा-पाप ही हैं । शास्त्रों में भी सत्य यज्ञ इस प्रकार से कहा गया है
सत्य ही यूप है, तप ही अग्नि हैं और मेरे कर्म ही ईंधन है, अहिंसा रूपी आहुति को दें, इस प्रकार का यज्ञ सज्जनों को मान्य हैं। यदि यज्ञ करनेवालें को कर्तृ, क्रिया, द्रव्य के विनाश में स्वर्ग हैं, तो दावाग्नि से जलाएँ हुए वृक्षों को बहुत फल हो । यदि यज्ञ में मारे हुए पशुकी स्वर्ग की प्राप्ति इष्ट है, तो यज्ञ करनेवाले के द्वारा अपना पिता उस यज्ञ में क्यों नही मारा जाता है ?
यह सुनकर क्रोधित हुआ राजा उसे परीवार सहित मारने का विचार करने लगा । धनपाल ने राजा के मन में रहे हुए सर्व को भी जान लिया, परंतु स्व-नियम को नहीं छोड़ा । राजा शिव के मंदिर में गया । धनपाल पंडित के बिना सभी ने शिव को प्रणाम किया । तब राजा ने उसे पूछा- किस लिए तुम शिव को प्रणाम नहीं कर रहे हो ? धनपाल ने कहा
मैं जिनेन्द्र-चन्द्र के प्रणाम में लालस अपने सिर को अन्य को झुकाता नहीं हूँ । गजेन्द्र के गाल स्थल के मद में लोलुप हुआ भ्रमर का समूह कुत्ते के मुख में स्थित नहीं होता हैं।