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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ११२ भाई का स्मरण हो रहा है । साधु ने कहा कि - हे मित्र ! तेरे समीप में तेरा भाई ही हैं । इस प्रकार के वाक्य से विश्वास से युक्त बना वह आनंदित हुआ । शोभन ने उसे निश्चल श्रावक बना कर अन्यत्र विहार किया । धनपाल पाँच सो पंडितों में मुख्य बना । एक दिन पाँच सो पंड़ितों से युक्त भोज शिकार के लिए गया । वहाँ एक हिरण को एक बाण से मारा । तब पलायन करते हुए हिंसक प्राणियों को देखकर राजा ने कविराज से कहा कि-हें कविराज ! क्या कारण है कि जो ये मृग आकाश में उछल रहे है और सूअर पृथ्वी को कूरेद रहे है ? कविराज ने कहा कि - हे देव ! आपके अस्त्र से चकित हुए एक चन्द्र के मृग का और अन्य आदिवराह का आश्रय लेने के लिए जा रहे है । राजा ने धनपाल से कहा कि- तुम मेरे शिकार का वर्णन करो । धनपाल ने कहा - यहाँ जो पौरुष है, वह पाताल में जाये । यह कुनीति है जो यहाँ पर बलवान्, अशरण, दोष-रहित और अति-दुर्बल प्राणी को मारता हैं । हाहा ! महा-कष्टकारी है । यह जगत् राजा - बिना का है । यहाँ रण में उत्कट भट पद-पद पर हैं लेकिन उनमें यह हिंसा-रस पूर्ण नहीं किया जा सकता हैं । उससे राजा के कु - विक्रम को धिक्कार है, जो कृपा के आश्रय मुझ मृग पर कृपण हैं । इस प्रकार के तिरस्कार से क्रोधित हुए राजा ने धनपाल की दृष्टि में दृष्टि देकर कहा कि- यह क्या है ? इस प्रकार से कहने पर धनपाल ने कहा- तृण के भक्षण से प्राणांत में वैरी भी छोड़ दीएँ जातें हैं । सदा ही तृण का आहार करनेवाले यें पशु कैसे मारे जाएँ ? यह सुनकर कृपा के उत्पन्न होने से धनुष-बाण को तोड़कर और शिकार नहीं करने की प्रतिज्ञा कर वह स्व-निर्मित सरोवर में गया । वहाँ पर भी राजा के वाक्य से कविराज के द्वारा सरोवर का वर्णन किया गया ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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