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उपदेश-प्रासाद
भाग १
गये । धनपाल ने उनसे हास्य से कहा- गर्दभ के समान दाँतवाले हे भगवन् ! आपको नमस्कार हो । साधु ने कहा- मर्कट के समान मुखवाले हे मित्र ! तुझे सुख है ? मुनि के वचन - चातुर्य से मैं जीता गया हूँ, इस प्रकार से विचार कर धनपाल ने कहा कि - हे साधु ! किसके गृह में आपकी वसति है ? साधु ने कहा- जिनकी रुचि है, उसके गृह में मेरी वसति है । उनको विद्वान् मानकर धनपाल ने स्वगृह में उतारा । अपने घर में भोजन करने के लिए बैठे हुए धनपाल ने मुनि का स्मरण किया और भोजन के लिए बुलाया । उसी दिन किसी वैरी ने मोदक में विष डाला था । मोदक के दीये जाने पर मुनि ने कहा कि - यह नहीं कल्पता है । धनपाल ने कहा कि- क्या मोदक के अंदर विष है ? साधु ने कहा कि ऐसा ही है। धनपाल ने परंपरा से वैरी के द्वारा डाले गये विष को जानकर स्व- जीवित का रक्षण करनेवाले मुनि से कहा कि- आपने इसे कैसे जाना ? मुनि ने कहा कि- पूर्व सूरि के वचन से जाना है । जैसे कि
विष सहित अन्न को देखकर चकोर - पक्षी दोनों आँखों में विराग को धारण करता है, हँस कूजता है, सारिका वमन करती है, पोपट शीघ्र ही चीकता है, बंदर विष्टा करता है, कोयल क्षण में ही मृत्यु को प्राप्त करती है, क्रौञ्च प्रसन्न होता है, नकुल हर्षवान् होता है और कौआ प्रीति को धारण करता है ।
उससे इस मोदक को देखकर पिंजरे में रहे हुए इस चकोर ने दोनों आँखों को मूंद ली थी, इत्यादि से मैंने इसे जाना है । यह सुनकर धनपाल विस्मित हुआ । पुनः उसने दही लाया । साधु ने कहा कियह त्रिदिवसीय का है, इसप्रकार से कह कर साधु ने दही में लाखरस को डालकर जीव दीखाएँ । पश्चात् उसने प्रासुक दही दिया । तब उसने मुनि से कहा कि - हे भगवन् ! आपको देखकर मुझे बार-बार
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