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उपदेश-प्रासाद - भाग १ जाननेवाले महान् पुरुषों को वह नहीं होता । जैसे कि कुविकल्पवालों के परिचय में भी कोई गुणज्ञ पुरुष विपरीत ही उनके सम्यग्दर्शन को अत्यंत निर्मल करते हैं।
इस विषय में यह धनपाल कवि का प्रबन्ध हैं
धारा नगरी में लक्ष्मीधर नामक ब्राह्मण को धनपाल और शोभन नामक दो पुत्र थें।
एक बार घर में रखी हुई निधि बहुत देखने पर भी उसे नहीं मिल रही थी । एक दिन वेदों के भी ज्ञाता जिनेश्वर सूरि वहाँ पर आये
और लक्ष्मीधर के पूछने पर उन्होंने कहा- यदि तुम एक पुत्र हमको दोगे, तब तुझे हम निधि दीखायेगें । लक्ष्मीधर के द्वारा भी इसे स्वीकार करने पर पूज्य गुरुओंने अहि वलय चक्र आम्नाय से निधि दीखायी । क्रम से लक्ष्मीधर ने अपने अन्त्य अवसर में दोनों पुत्रों को स्व प्रतिज्ञा का ज्ञापन किया । खेद सहित पिता को देखकर शोभन ने कहा- मैं आपको ऋण रहित करूँगा । लक्ष्मीधर के मरण प्राप्त होने पर स्व-जन से पूछे बिना ही शोभन ने गुरु के समीप में दीक्षा ग्रहण की । गुरु ने धनपाल के भय से मालव में विहार निषेध किया।
शोभन महा-विद्वान् और जिन-स्तुति करण में व्यग्र मनवालें गोचरी के लिए गये । वेंधारण कीये हुए पात्र को नीचे रखने के समय में पाषाण-पात्र को लेकर गुरु के समीप में आये । उसे देखकर मुनि के स्पर्धा-कारी हँसने लगें कि- अहो ! इसको महालाभ का उदय हुआ हैं । तब शोभन ने गुरु से यथास्थित कहा । उसे सुनकर और काव्यों को देखकर गुरु हर्षित हुए ।
एक दिन गुरु कहने लगे कि- हे शिष्य ! तुम वहाँ जाकर जैनद्वेषी धनपाल को प्रतिबोधित करो । शोभन उसे अंगीकार कर वहाँ गये और अवन्ती के द्वार पर प्रवेश करते हुए धनपाल के द्वारा देखे