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________________ १०६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ रहतें हैं । महा-वेदना से पीड़ित उन मनुष्यों के अवयव बाहर के प्रदेश में पिष्ट के समान गिरतें हैं । वें व्यापारी उनको शोधकर गोलिकाओं को ग्रहण करतें हैं। हे गौतम ! वह सुमति परमाधार्मिक से च्यवकर अंतर अंडगोलिक मनुष्य होगा । फिर से भी उसी देवत्व को प्राप्त करेगा। इस प्रकार इसे सात भव पर्यंत जानों । पश्चात् व्यंतरत्व, वृक्षत्व, पक्षीत्व, स्त्रीत्व, छटे नरकत्व और कुष्ठी नरत्व । इस प्रकार से अनंत काल पर्यंत भ्रमण कर अशुभ कर्म-क्षय होने पर चक्रवर्ती पद को प्राप्त कर और प्रव्रज्या को ग्रहण कर मुक्ति में जायगा । नागिल ने बावीसवें जिन के समीप में दीक्षा ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की है। विशेष से यह प्रबन्ध महानिशीथ के चतुर्थ अध्ययन से जानें । सदास्तिक जन सुमति के इस वृत्तांत को सुनकर सज्जन को अमान्य ऐसी कुशील-प्रशंसा को छोड़ दें। तथा विशुद्ध सम्यक्त्व से विभूषित नागिल ने सुसंग से मोक्ष को प्राप्त किया। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में द्वितीय स्तंभ में कुशीलप्रशंसा के ऊपर नागिल का दृष्टान्त संपूर्ण हुआ । तेइसवाँ व्याख्यान अब मिथ्यादृष्टि-संस्तव नामक पाँचवाँ दोष कहा जाता है मिथ्यात्वीयों के साथ में आलाप, गोष्ठी और परिचय, यह संस्तव नामक दोष हैं और यह सम्यक्त्व को दूषित करता है। उनके साथ में परिचय दोष के लिए होता है। उनकी क्रियाओं का श्रवण और अवलोकन से अनेकान्त से अज्ञ मन्दबुद्धिवाले पुरुष को दर्शन-भेद की संभावना होती है, किंतु संपूर्ण स्याद्वाद को
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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