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उपदेश-प्रासाद - भाग १ की क्रीड़ा में तुझे जीतकर यह तेरी पीठ के ऊपर बैठेगी । इस प्रकार से यह सुनकर आश्चर्य-चकित हुआ राजा श्रीजिन को नमस्कार कर महल में आया।
इस ओर अपने दौर्गन्ध्य कर्म की निर्जरा कर वह बालिका किसी संतान रहित गोपालक स्त्री के द्वारा ग्रहण की गयी । क्रम से उसने यौवन को प्राप्त किया। एक बार कौमुदी उत्सव के प्राप्त होने पर राजा अभय के साथ स्त्रियों के समूह को देखने के लिए आया ।तब श्याम, यौवनशाली, सुवचनवाली, सौभाग्य-भाग्य की उदयवाली, कर्ण के समीप तक विस्तृत नेत्रोंवाली, कृश हुई कमरवाली, होशियारी के गर्व से युक्त, सुंदर, बाल हँस के समान मन्थर गतिवाली, मत्त हाथी के कुंभ समान स्तनवाली, बिंब फल सदृश होंठोंवाली, परिपूर्ण चन्द्र के समान मुखवाली, भँवरों के समूह के समान श्याम केशोंवाली ऐसी उस गोवालियें की पुत्री को देखकर काम उत्पन्न होने से राजा ने अपनी अंगूठी को उसके उत्तरीय के आँचल में बाँधकर उसकी गवेषणा करने के लिए राजा ने अभय से कहा कि- मेरी अंगूठी गिर पड़ी है और किसी ने अपहरण की हैं।
अभय भी पिता के वचन को दंभ रहित मानता हुआ सर्व भी वन के द्वारों को रोककर और एक द्वार से बाहर निकलती हुई स्त्रियों के हाथ, वस्त्र, आँचल को देखता हुआ उसके उत्तरीय के आँचल से निकली हुई उस अंगूठी को देखकर पूछने लगा- राजा की अंगूठी को तूं ने कैसे ग्रहण की है ? तब उसने अपने दोनों कानों को ढंककर कहा कि- मैं कुछ भी नहीं जानती हूँ। उसके वचन से और ईंगित से उसे
औदार्य-सहित मानकर मंत्री ने सोचा कि- यह चोरी करनेवाली नहीं है, किंतु राग से युक्त हुए पिता ने ऐसा किया हैं । तब उसके साथ में राजा के समीप में जाकर मंत्री ने कहा कि- हे देव ! इसने आपके चित्त