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उपदेश-प्रासाद - भाग १
१०५ को चुराया हैं, उससे अंगूठी की कथा से पर्याप्त हुआ। श्रेणिक ने भीयह इस प्रकार से ही है, ऐसा कहकर उसे अग्र महिषी बनाई।
एक दिन श्रेणिक को जीतकर वह निःशंक से उसके पीठ पर बैठी । क्योंकि
निचकुल में जन्म को प्राप्त सन्मानित किया जाता हुआ भी स्व कृत्यों से कुल को प्रकटित करता हैं । वेश्या से उत्पन्न होने से दुर्गन्धा ने श्रीश्रेणिक की भुजा के ऊपर पैर को रखा था।
तब वीर के वचन को स्मरण कर राजा हँसने लगा । उसने भी तत्काल उसकी पीठ से नीचे उतरकर अप्रस्ताव में हास्य का कारण पूछा । तब पूर्व भव से आरंभ कर हास्य पर्यन्त उस स्वामी के द्वारा कहे हुए को सुनकर वैराग्य से उसने वीर के समीप में दीक्षा ग्रहण की ।
श्रीश्रेणिक की स्त्री के चरित्र को चित्त में रखकर, जो जीव कदापि कष्ट में यति-संयतियों की जुगुप्सा को नहीं करतें हैं, वें अनुत्तर सिद्धिगति को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में द्वितीय स्तंभ में तृतीय विचिकित्सा दोष के त्याग में दुर्गन्धा का एकविसवाँ प्रबंध संपूर्ण हुआ ।
बाविसवा व्याख्यान अब सम्यक्त्व का चौथा दूषण इस प्रकार से है
जो अन्य लिंग-धारक अतीत में हुए हैं, भविष्य में होनेवाले हैं और जो वर्तमान में हैं उनकी प्रशंसा करना यह आशंसा नामक चतुर्थ दोष हैं।
- यह दो प्रकार से है- सर्व-विषयक और देश-विषयक । वहाँ सभी भी दर्शन सत्य हैं, इस प्रकार माध्यस्थ्य से स्तुति करना वह