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उपदेश-प्रासाद - भाग १ सेवक से इस दुर्गन्ध का कारण पूछा । तब उसने कहा कि- मार्ग में एक जन्म-मात्र प्राप्त बालिका पड़ी हुई है । तब राजा ने कहा कि- यह पुद्गलों का परिणाम है । तथा-रूपवाली गिरी हुई उस बालिका को देखकर और समवसरण में जाकर श्रीवीर को प्रणाम कर राजा ने . अवसर पर उसके पूर्व चरित्र को पूछा । भगवान् कहने लगे
वाणिज्यशालि ग्राम में धनमित्र श्रेष्ठी की धनश्री पुत्री थी। एक बार ग्रीष्म ऋतु के समय में उसके विवाह के प्रारब्ध हो जाने पर, तब भिक्षा के लिए उसके घर में साधु आये । तब वह पिता के द्वारा आदेश दी गयी प्रतिलाभित करने लगी । तब अप्रतिकर्मित शरीरवालें महात्माओं के पसीने और मल के दुर्गन्ध से अपने मुखकमल को मरोड़कर, यौवन-बलवाली, सर्व आभरणों को धारण की हुई और मनोहर विलेपन के तांडव से सुंदर वह धनश्री सोचने लगी कि- अहो ! निष्पाप ऐसे श्रीजिन मार्ग में स्थित यें साधु यदि प्रासुक जल से भी स्नान कर ले तो उसमें कौन-सा दोष हैं ? इस प्रकार जुगुप्सा से उत्पन्न कर्म की आलोचना कीये बिना मरकर वह इस राजगृह में वेश्या के उदर में पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई हैं । उस दुष्कर्म से माता के गर्भ में रही हुई वह अत्यंत अरति को करने लगी। वह वेश्या उस गर्भ से उद्विग्न हुई गर्भपात की औषधियों को लेती हुई भी समय पूर्ण होने पर जन्म को प्राप्त उस दुर्गन्धा पुत्री को विष्टा के समान बाहर छोड़ दिया । अब इसकी क्या गति होगी ? इस प्रकार राजा के पूछने पर प्रभु ने कहा कि
हे राजन् ! इसने मुनि जुगुप्सा से उत्पन्न हुए उस कर्म विपाक को संपूर्ण भोग लिया है। अब सुपात्र के दान से भोग-फल का उपार्जन कर कस्तूरी, कर्पूर आदि से भी अधिक सुगंधि देहवाली यह आठ वर्षीय तेरी अग्र महिषी होगी । उसकी पहचान यह है कि पासों