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उपदेश-प्रासाद - भाग १ यहाँ उपासक श्रीधर के समान उपहास का पात्र होता हैं, उससे जिनशासन को जाननेवाले यहाँ अन्य देव-गुरु धर्म के प्रति श्रद्धा न करें सुदेवादि के प्रति दृढ़ श्रद्धावान् रहे।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में द्वितीय स्तंभ में द्वितीय दूषण के त्याग में श्रीधर वणिक् का विसवाँ उदाहरण संपूर्ण हुआ ।
एकविसवा व्याख्यान अब तृतीय विचिकित्सा दोष का प्ररूपण किया जाता है
देश से अथवा सर्व से भी, की हुई धर्म क्रिया के फल के प्रति हृदय में संदेह किया जाता हैं, वह विचिकित्सा नामक दोष हैं।
विचिकित्सा नामक दोष-सामायिक आदि क्रियाओं के फल के प्रति संदेह हैं, वह किसानों के समान ही हैं । निश्चय से यह शंका से भिन्न नहीं है। जैसे कि-शंका सकल पदार्थ के विषय में द्रव्य-गुण विषयवाली है और विचिकित्सा क्रिया-विषयवाली ही हैं । और मुनिजन में मल मलिन शरीर को देखकर जुगुप्सा, सदाचारी-मुनियों की निन्दा जैसे कि यें प्रासुक-जल से यदि अंग का प्रक्षालन कर ले तो कौन-सा दोष हैं इत्यादि ! यह विचिकित्सा भी भगवान् के धर्म में अविश्वास रूप से होने से सम्यग्दर्शन में दोष हैं, यह इसका भावार्थ हैं।
इस विषय में दुर्गन्धा रानी का प्रबन्ध जानें, -
राजगृह में श्रेणिक राजा था । एक बार उस नगर में समवसरण में श्रीवीरविभु को नमस्कार करने के लिए सर्व-ऋद्धि से जाते हुए उस राजा ने दुर्गन्ध के पराभव से वस्त्रों के आँचल से नाक को ढंकते हुए सैनिकों को देखकर यह क्या है, इस प्रकार किसी अपने