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उपदेश-प्रासाद - भाग १
१०१ एक कोई यतियों के हाथ में रही हुई तूम्बीयाँ पात्र-लीला को भजती हैं। अन्य शुद्ध बाँस में विलग्न हुई सरस-मधुर गा रही हैं। अन्य कोई डोरी से गूंथी हुई दुस्तर को भी तीरती हैं । तूम्बियाँ उनके मध्य में ज्वलित हुई हृदयवाली रक्त को पीती हैं।
एक दिन चोरों ने उसके गृह के सर्वस्व को चुराया । उससे क्षुभित हुआ वह भोजन के भी संदेह में गिरा । अति दुःखित हुआ वह उन देवताओं के आगे अट्ठम कर स्थित हुआ। तृतीय दिवसं होने पर वें देव कहने लगें तूं ने किस लिए हमारा स्मरण किया हैं ? उसने कहा- तुम मुझे संपत्ति दो । तब कुल-देवी कहने लगी कि- रे दुष्ट! तूं शीघ्र से मेरे आगे से उठ जाओं । जिनकी तुम अपने घर में पूजा करते हो, वें ही देंगे । वे देव हँसकर परस्पर कहने लगें । वहाँ गणेश ने चंडिका से कहा कि- हे भद्रे ! भक्त के ऊपर अभीष्ट-प्रद हो । चंडिका भी कहने लगी कि- यक्ष इसका अभीष्ट देगा, जो प्रौढ आसन के ऊपर निवेशित किया गया मेरे पूर्व में पूजित किया जाता हैं। यक्ष भी कहने लगा कि- इसके अभीष्ट को शासन-देवता ही देगी । इस प्रकार से परस्पर उपहास सहित सभी ने उसकी उपेक्षा की । तब अतीव खेदित और किंकर्तव्यता से मूढ हुए उसे शासन-देवी ने कहा कि तुम निद्रा, विकथा, हास्य में रक्त अन्यों को छोड़कर श्रीसर्वज्ञ, देवाधिदेव, अष्ट कर्मो का क्षय करनेवाले, कृपा-अवतार और त्रिकालज्ञ की ही आराधना करो, जिससे कि दोनों भवों में भी वें सौभाग्य- श्री प्रदान करने वाले हो । उसे सुनकर के श्रीधर ने वैसे ही किया । शासन-देवी ने दृढ निराकांक्ष उसे वह रत्न दिया । फिर से भी उसने अधिक समृद्धि प्राप्त की और मरण प्राप्त कर वह पुन आसन्न मोक्ष-गतिवाला हुआ।
श्रुत से गर्हित उस कांक्षा नामक दोष का आचरण करता हुआ