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उपदेश-प्रासाद - भाग १
___६८ श्रीतिष्यगुप्त के इस चरित्र को सुनकर-शंका सुबुद्धि को मलीन करती है, इस प्रकार से भव्य पुरुषों के द्वारा सदा ही जिन सूत्र और वाक्य में वह कभी-भी नहीं करनी चाहिए।
मति-दौर्बल्य आदि से अथवा कोई समय मोह के वश से जहाँ पर भी संशय होता है, वहाँ भी यह अप्रतिबाधित अर्गला है, जैसे कि
कहीं पर मति की दुर्बलता से अथवा उस प्रकार के आचार्य के विरह से और ज्ञेय के गहनपने से तथा ज्ञानावरण के उदय से, हेतु-उदाहरण के संभव होने पर भी जो अच्छी प्रकार से समझ न सकें, तो भी मतिमान् उसे विचार करें कि सर्वज्ञ का मत सत्य ही हैं।
केवल आगम-गम्य जो पदार्थ हैं, वे हमारे आदि प्रमाण परीक्षा से निरपेक्ष हैं और वें आत्म-प्रमाण से संदेह करने योग्य नहीं
इस प्रकार से उपदेश-प्रासाद में द्वितीय स्तंभ में सम्यक्त्व का प्रथम दूषण उच्चार रूप उन्नीसवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।
विसवा व्याख्यान अब द्वितीय आकांक्षा दोष को स्पष्ट करतें हैं
देश से अथवा सर्व से भी पर-दर्शन की अभिलाषा, वह सम्यक्त्व में आकांक्षा नामक दोष हैं, इस प्रकार जिनेश्वरों के द्वारा कहा गया हैं।
किसी स्थान में किसी जीव-दया आदि गुण को देखकर उसी दर्शन की आकांक्षा करता हैं । वहाँ देश से एक दर्शन की अभिलाषा है और सर्व से सर्व पाखंडी धर्मों की अभिलाषा का होना । जैसे कि