SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ६७ मात्र भी स्वीकार नहीं किया, तब उसे गच्छ से बाहर किया । वह शिष्य विहार करता हुआ आमलकल्पा नगरी में जाकर वन में स्थित हुआ । वहाँ मित्रश्री श्रावक ने उसे यह निह्नव है, इस प्रकार से जानकर, उसके प्रतिबोध के लिए वहाँ जाकर उसे निमंत्रित किया कि आज आहार के लिए मेरे घर में आप स्वयं ही आये । वह शिष्य उसके घर पर गया । और वहाँ उसे बिठाकर बड़े हर्ष को दिखाते हुए उस श्रावक ने उसके आगे भक्ष्य, भोज्य, अन्न-पान, व्यञ्जन, वस्त्र आदि वस्तुओं के समूह को विस्तारित कीये । उनके मध्य में से एक-एक अन्त्य अवयव को लेकर के उस शिष्य को प्रतिलाभित किया । वस्त्र के एक तन्तु को निकालकर और उसे देकर के नमस्कार किया । वह अपने स्वजनों को कहने लगा कि - तुम वंदन करो, साधु प्रतिलाभित कये गये हैं । मैं धन्य हूँ, पुण्यवान् हूँ जो मेरे घर पर स्वयं ही गुरु आये हैं । I - तब वह शिष्य कहने लगा कि - हे श्रावक ! इस प्रकार से तो हम तेरे द्वारा अवमानित कीये गये हैं ? उसने कहा कि- हे स्वामी ! जो आपका मत प्रमाण है, तो यह सत्य ही है कि चावल का अन्त्य अवयव तृप्ति के लिए होगा और शीत से रक्षण के लिए वस्त्र का तन्तु होगा । और यदि नहीं तो आपका समस्त भी कहा हुआ मिथ्या होगा । इस प्रकार से सुनकर वह शिष्य कहने लगा कि - हे श्रावक ! हम तुम्हारें द्वारा सुंदर रीति से प्रतिबोधित कीये गये हैं और श्रीवीरविभु के वाक्य में निःशंकित कीये गये हैं । पश्चात् उस श्रावक ने उनको अत्यंत भक्ति की विधि से प्रतिलाभित किया । तथा वह शिष्य भी आलोचना और प्रतिक्रमण कर श्रीजिन की आज्ञा से विहार करने लगा । पश्चात् गुरु-पाद मूल से सम्यग् मार्ग को स्वीकार किया और क्रम से स्वर्ग को प्राप्त हुआ ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy