________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १
एक बार आत्म-प्रवाद पूर्व का अध्ययन करते शिष्य को यह सूत्र का आलाप आया- हे भगवन् ! एक जीव के प्रदेश में जीव है, इस प्रकार से कहना चाहिए । नहीं, यह अर्थ समर्थ नही हैं । एवं दो, तीन, संख्येय अथवा असंख्येय एक प्रदेश से न्यून बिना का जीव हैं, इस प्रकार से जीव नहीं है, ऐसा कहना चाहिए किस कारण से ? क्योंकि संपूर्ण प्रतिपूर्ण लोक-आकाश प्रदेश के समान जीव, जीव है ऐसा कहना चाहिए । इत्यादि पढ़ते हुए उस शिष्य को शंका हुई कि एक अन्त्य प्रदेश में जीव हैं,शेष में नहीं है, इस सूत्र के आलापक के प्रमाण से । इस प्रकार से प्ररूपणा करते हुए उस शिष्य को मित्र होकर के गुरु कहने लगें कि- हे शिष्य ! यदि प्रथम आदि प्रदेशों में जीवत्व इष्ट नहीं हो, तो अन्त्य प्रदेश में भी वह इष्ट नहीं हो क्योंकि समान प्रदेश के होने से । जैसे धूल के हजार कणों मैं तैल नही है तो एक अन्त्य कण में भी तैल कहाँ से आयगा ? अंतिम प्रदेश में जीव मानने से जीव का अभाव ही होता है और यह अर्थ अनिष्ट हैं।
शिष्य ने कहा कि- निश्चय से यह वचन आगम-बाधित है, क्योंकि अनंतर कहे हुए श्रुत में प्रथम आदि प्रदेशों के बिना चरम प्रदेश में जीवत्व की अनुज्ञा होने से । जगत्-बन्धु के द्वारा प्रणीत किया हुआ कैसे निषेध किया जाता है ? गुरु कहने लगे कि- हन्त ! यदि तुम सूत्र को प्रमाणित करते हो, तो वहीं पर कहा गया है- संपूर्ण प्रतिपूर्ण लोक-आकाश प्रदेश के समान जीव है, इसलिए श्रुत की प्रमाणता की इच्छा करते हुए तुम्हारे द्वारा आपत्ति नहीं करनी चाहिए। किंतु समुदित कीये हुए सर्व जीव-प्रदेश भी जीव हैं । जैसे कि समस्त ही धागों के समुदाय से वस्त्र का सूचन प्राप्त किया जाता है, लेकिन एक धागे में समस्त वस्त्र नहीं होता ।
इत्यादि रीति से गुरुओं के द्वारा समझाने पर भी जब लेश