________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १
EX
उन्नीसवा व्याख्यान अब पाँचवाँ पाँच दोषों का परिहार का स्वरूप लिखा जाता
यें पाँचों भी सम्यक्त्व को दूषित करतें हैं- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि-प्रशंसन और उनका संस्तव ।
यहाँ पहले शंका है और वह यह है कि-श्रीमद्-अर्हत्के धर्म में संदेह सहित बुद्धि का होना । वह दो प्रकार से हैं- देश से और सर्व से । वहाँ देश-शंका एक-एक पदार्थ में होती हैं, जैसे कि- जीव हैं, किन्तु वह सर्व व्यापी है अथवा सर्व व्यापी नहीं हैं । स-प्रदेश है अथवा प्रदेश रहित हैं। दूसरी सर्व-शंका सर्व पदार्थों में अप्रत्यय रूप से होती हैं । दोनों प्रकार से भी शंका सम्यक्त्व को दूषित करनेवाली होती हैं । यहाँ पर पेय-पीलानेवाली नारी का यह उदाहरण है कि
किसी स्थान पर किसी नारी को दो पुत्र हुए थे । एक सपत्नी का पुत्र था और द्वितीय खुद का था । लेख-शाला से आये उन दोनों को उसने उडद का पेय दिया । सपत्नी के पुत्र ने सोचा कि- यह पेय मक्खी से युक्त हैं । इस प्रकार आशंकित हुआ नित्य वमन करता हुआ वल्गुलि व्याधि से मरण प्राप्त हुआ। द्वितीय ने सोचा कि- माता मक्खी को नहीं देती हैं। इस प्रकार निःशंकपने से वह सुख का भोगी हुआ । इस लिए शंका का परिहार करना चाहिए ।
इस विषय में श्रीवीर के केवलज्ञान की उत्पत्ति से सोलह वर्ष के व्यतीत होने पर उत्पन्न यह द्वितीय तिष्यगुप्त का प्रबन्ध इस प्रकार से है
राजगृह में गुणशील चैत्य में चौदह-पूर्वी वसु नामक आचार्य आये थे । उनका शिष्य तिष्यगुप्त था ।