SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ कुंडनपुर का निवासी वृश्चिक नामक श्रावक हूँ । एक बार बहुत क्रयाणक वस्तुओं को लेकर मैं उज्जयिनी में आया था। तब वसन्त महोत्सव में अनंगलता गणिका को देखकर मोहित हुए मैंने उसे सर्वस्व अर्पित किया । मैं विषय सुख को भोगने लगा। एक बार वह वेश्या रानी के आभूषणों को देखकर के अपने आभूषणों की निन्दा करती हुई रोने लगी कि- यदि तुम मेरे सत्य पति हो तो मुझे रानी के आभूषण दो । मैंने भी उसे स्वीकार किया । रात्रि के समय उन्हें चुराने के लिए मैं राजा के वास-मंदिर में गया था और वहाँ मैंने उन दंपतीयों का आलाप सुना । रानी ने उसे पूछा कि- हे स्वामी ! आज आपको कौन-सी चिन्ता हैं ? राजा ने कहा कि- हे प्रिये ! जब प्रभात में वज्रकर्ण मेरी हाथ की तलवार से महा-बन्धन को प्राप्त करेगा, तब मेरे चित्त में सौख्य होगा । तब मैं उसके वाक्य से तुम्हारी दृढ़ता को सुनकर अब्रह्म से निवृत्त हुआ शीघ्र ही उसे कहने के लिए आया हूँ। तुम अपने इच्छित को करो । वज्रकर्ण उसे द्रव्य आदि से सन्मानित कर और स्वयं भी सज्जित होकर स्थित रहा, इन गांवों के लोग दशपुर नगर में चले गये है और वज्रकर्ण भी नगर के द्वार बंध कर नगर के मध्य में रहा हुआ है। प्रभात में सिंहरथ ने नगर को वेष्टित किया । उसने दूत भेजा। दूत आकर के कहने लगा कि- हे वज्रकर्ण ! हमारेंचरण नमस्कार से राज्य भोगो, अन्यथा तुझे मार डालूँगा । वज्रकर्णनेकहा कि-रेरे दूत ! मुझे राज्य से प्रयोजन नही हैं, परंतु तुम मुझे धर्म-द्वार दो जिससे कि मैं अन्यत्र जाकर स्व-नियम का पालन करूँगा । इस प्रकार से कहने पर दूत ने वह सिंहरथ से कहा । दूत के वाक्य से क्रोधित होकर वह सिंहरथ नगर को रोककर रहा हुआ है । इस प्रकार उस पुरुष ने देश के उज्जड होने का कारण कहा ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy