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उपदेश-प्रासाद
भाग १
६२
आप यहाँ अरण्य में क्या कर रहे हो ? यति ने कहा कि - आत्म-हित ! उसने कहा कि- हे स्वामी ! आप मुझे भी आत्म-हित कहो । मुनि ने कहा- सम्यग्-दर्शन पूर्वक हिंसा आदि का त्याग करना ही आत्महित हैं । जो कि
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जिनेन्द्र देव जो राग-द्वेष रहित है, गुरु भी चारित्र रहस्य के कोष के समान हैं और जीव आदि तत्त्वों की श्रद्धा, इस प्रकार से सम्यक्त्व प्रधान कहा गया हैं । अरिहंत और मुनि - सत्तमों को छोड़कर, जिसका सिर दूसरें को नमस्कार नहीं करता, निर्वाण सुखों का निधान-स्थान ऐसा यह सम्यक्त्व उसी का विशुद्ध होता हैं । इत्यादि धर्म के उपदेश से प्रतिबोधित हुए उसने सम्यक्त्व मूल द्वादश व्रतों को लीये । उसमें भी विशेष से जिनेश्वर और सुगुरु के बिना मैं अन्य को नमस्कार नही करूँगा, इस प्रकार से नियम को ग्रहण कर वह स्व-नगर में आया । उसने निज चित्त में सोचा किमैं अवन्ती के स्वामी सिंहरथ का सेवक हूँ। इसलिए अवश्य ही प्रतिदिन मुझे प्रणाम विधेय है और उससे मेरे नियम का भंग होगा, इस प्रकार से विचारकर उसने अंगूठी की मुद्रिका के ऊपर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के बिंब को कराया । उसे आगे कर वह मन से जिन - प्रणाम और बाह्य से राज-प्रणाम को करता था ।
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एक बार किसी दुर्जन ने राजा से सर्व भी वृत्तान्त की विज्ञप्ति की । तब राजा ने सोचा कि - अहो ! वज्रकर्ण कृतघ्नों का स्वामी है जो मेरे राज्य को भोग रहा हैं और मुझे नमस्कार भी नहीं करता । इस दुष्ट को दंड ही न्याय हैं, इस प्रकार विचारकर उसने संग्राम के लिए भेरी बजवायी । उतने में ही एक पुरुष ने आकर के कहा कि - हे वज्रकर्ण ! हे साधर्मिक- श्रेष्ठ ! तुझे जो इष्ट है, उसे करो । राजा ने पूछा- तुम कहाँ पर रहते हो ? तब उसने कहा कि- हे देव ! मैं