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________________ उपदेश-प्रासाद ६१ भाग १ रस्सी, जंजीर आदि बंधनों से पीड़ित किया जाता हुआ भी - महान् संकट में गिरा हुआ भी, जिनेश्वर के बिना अन्य शाक्य, शंकर, स्कन्द आदि देवों को नमस्कार नहीं करता, उस सम्यक्त्ववंत प्राणी को वह तीसरी काय-शुद्धि होती हैं, यह अर्थ हैं और भावार्थ तो वज्रकर्ण के प्रबन्ध से कहा जाता है - I अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न दशरथ नामक राजा था । उसने प्रियतमा कैकेयी को वर दिया था और उस वर से उसने राम-लक्ष्मण और सीता का बारह वर्ष का वनवास कराया । अनुक्रम से वें पञ्चवटी मार्ग से अवन्ती देश के एक ग्राम को प्राप्त हुए । वहाँ पर दूकानें व्यापार के योग्य वस्तुओं से परिपूर्ण थी, गृह धनकांचन से पूर्ण थें, धान्य को नहीं ग्रहण कीये हुए बैल आदि दीखायी दे रहे थें, परंतु कोई मनुष्य नहीं दिख रहा था । राम ने लक्ष्मण से पूछा- यह शून्य कैसे है ? लक्ष्मण ने अति बड़े वृक्ष के ऊपर चढकर चारों दिशाओं में देखा । उतने में ही एक पुरुष दिखायी दिया, उसने भी आकर के प्रणाम किया । लक्ष्मण उसे लेकर अग्रज के पास में आया । राम के पूछने पर उसने कहा कि - हे स्वामी ! दशपुर में सत्त्वशाली वज्रकर्ण राजा था, परंतु वह लोक में प्रसिद्ध चंद्र के समान शिकार के व्यसन से दूषित था । एक दिन उसने वन में शिकारीयों की सहायता से सगर्भिणी हरिणी को बाण से मार डाला । तब उसका गर्भ पृथ्वी पर गिर पड़ा । छिपकली की कटी हुई पूंछ के समान पीड़ित उसे देखकर करुणा उत्पन्न होने से वह अपनी निन्दा करने लगा कि - हा ! मैंने नरक पाप का अर्जन किया है । इस प्रकार से निर्दयता को छोड़कर परिभ्रमण करते हुए राजा ने एक स्थान पर शिला-तल के ऊपर आसीन, शान्त, किदान्त साधु को देखकर प्रणाम किया । उसने नमस्कार कर पूछा
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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