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उपदेश-प्रासाद - भाग १ को अत्यंत ही मल-उत्सर्ग की चिन्ता हुई । लोगों की बहुलता से अन्यत्र जाने में असमर्थ हुआ उस माली ने लब्ध-लक्ष्यपने से शीघ्र वही मल-उत्सर्ग कर और उसके ऊपर पुष्प-पुञ्ज को रखकर आगे चला।
तब उस मार्ग पर जाते हुए दत्त राजा के मुख में घोड़े के खुर से उछाला गया विष्ठा का लेश गिरा । वह दत्त राजा जब उस प्रत्यय से वापिस गृह के अभिमुख आता है, तब मंत्री के द्वारा नियुक्त कीये हुए सेवकों के द्वारा बाँधकर वह जितशत्रु को समर्पित किया गया । आनंदित हुए उसके द्वारा वह कुंभीपाक से पकवाया गया ।
वह मरकर नरक के दुःखों के अतिथिपने को प्राप्त हुआ और आयु के क्षय से सूरीन्द्र भी स्वर्ग के भूषण हुए । इस प्रकार से दूसरों के द्वारा भी विदूर से मृत्यु के भय की अवगणना कर यथा स्थित वाक्य ही कहना चाहिए जिससे कि इस जन्म में अनेक लोगों के द्वारा मान्य ऐसे नृपपने को प्राप्त करता है और पर-भव में देवों के सौख्य प्रमुख संपदाएँ मिलती हैं।
इस प्रकार वाक्-शुद्धि में कालिकाचार्य का प्रबन्ध हैं।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में द्वितीय स्तंभ में सत्तरहवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।
अठारहवा व्याख्यान अब अन्तिम काय-शुद्धि का प्रकाशन किया जाता है
जो खड्ग आदि से भेदित किया जाता हुआ और बंधनों से पीड़ित किया जाता हुआ भी जिनेश्वर के बिना अन्य देवों को नमस्कार न करें, उसे काय शुद्धि कहते हैं । तलवार आदि से भेदा जाता हुआ,