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उपदेश-प्रासाद - भाग १ वंदन कर आगे बैठा और उसने गुरु से पूछा कि- हे मामा ! आप मुझे कहो कि यज्ञ का फल क्या होता हैं ? इस प्रकार पूछने पर गुरु ने प्राणीरक्षा रूपी धर्म को कहा । उसने कहा कि- हे प्रभु ! मैं धर्म नही पूछ रहा हूँ, किंतु फल पूछ रहा हूँ। इस प्रकार बार-बार पूछने पर गुरु ने कहा कि- हे दत्त ! क्या तुम नहीं जानते हो ? यज्ञ का फल महानरक ही हैं । तुझे नरक-गति होगी । क्योंकि
अस्थि में रुद्र रहता है, मांस में जनार्दन है । ब्रह्मा शुक्र में निवास करता हैं, उससे मांस का भक्षण न करें । तिल-सरसों जितने मात्र मांस को जो मनुष्य भक्षण करता हैं, वह चन्द्र और दिवाकर पर्यंत नरक में जाता हैं।
हे राजन् ! तुम इस दिन से सातवाँ दिन होने पर कुंभीपाक से पकाये जाते हुए नरक में जाओगें । यहाँ पर कौन-सा प्रत्यय हैं ? इस प्रकार उसके पूछने पर सूरि ने कहा कि- मृत्यु क्षण के पूर्व क्षण में तेरे मुख में मनुष्य की विष्टा गिरेगी । उसने पूछा कि- हे मामा ! आपकी कौन-सी गति होगी ? गुरु ने कहा- मैं स्वर्ग में जाऊँगा- इसे सुनकर उनको तलवार से मारने की इच्छा करता हुआ सोचने लगा कि- यदि मैं सात दिनों के बाद जीवित रहूँगा, तो इसे मार डालूँगा । दत्त ने उन सूरि को पहरेदार से नियंत्रित कर और अपने महल में प्रवेश कर संनद्ध हुए करोड़ भट्टों से घेरा हुआ छह दिनों को व्यतीत कीये । इस
ओर जितशत्रु राजा के भक्त जनों ने राज्य के दान के लिए राजा को प्रकट किया । यहाँ राज-मार्गों के रक्षण कीये जाने पर और अशुचियों को दूर कीये जाने पर आनंदित हुआ दत्त राजा सातवें दिन में आठवें दिन की भ्रान्ति से घोड़े पर चढा हुआ राज-मार्ग पर निकला ।
इस ओर माली फूलों से पूर्ण करंडक से युक्त राज-मार्ग में आया । भेरी आदि शब्दों को सुनने मात्र से ही अकस्मात् उस माली