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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ८८ "सतरहवा व्याख्यान" अब "द्वितीय वचन-शुद्धि" के स्वरूप को कहतें है कि__ जीव, अजीव आदि तत्त्वों के प्ररूपक सद्-आगम के विरुद्ध न कहें, वह मध्यम शुद्धि होती हैं। अब इस प्रकार से इसकी स्तुति करते है दान से गृह का आरंभ, विवेक से गुण-व्रत और वचन-शुद्धि से ही मोक्ष-सौख्य का अंग सम्यग् दर्शन जाना जाता हैं। इस विषय में संप्रदाय से आया हुआ यह कालिकसूरि का प्रबन्ध है- संकट में भी महान् पुरुष दत्त के मामा सुकालिक-आर्य के समान झूठ न बोलें । पत्थर पर घिसने पर भी चंदन सुगंधि होता हैं और ईक्षु भी पीलने पर अद्भुत रसवाला होता हैं। तुरमणि नगरी में कालिक ब्राह्मण रहता था । उसकी भद्रा नाम की बहन थी। उसे दत्त नामक भानजा था । कालिक ने क्रम से गुरु के समीप में धर्मोपदेश को सुनकर वैराग्य से संयम को ग्रहण किया । उस शासक के बिना दत्त अत्यंत निरर्गल हुआ । वह सप्तव्यसनी होकर क्रम से जितशत्रु राजा का सेवक हुआ । सेवा के द्वारा प्रसन्न कीये गये राजा ने उसे प्रधान पद दिया । क्रम से सर्व राजवर्गको वश कर और राज्य से राजा को निर्वासित कर स्वयं राज्य का प्रभु हुआ । निःशंक और पर-लोक से अभीरु उसने आश्रव कर्मों में द्रव्य-व्यय किया। इस ओर बहु-श्रुत होकर कालिक-कुमार ने गुरु से सूरि-पद को प्राप्त किया । याग को कराता हुआ वह दत्त बहुत जीवों को मारने लगा । राजा यज्ञ में मारे जाते हुए पशुओं को देखकर हर्षित हुआ। एक दिन वहाँ कालिकाचार्य आये । वह दुष्ट बुद्धिवाला माता के अनुरोध से गुरु को वंदन करने के लिए गया । दत्त मामा-सूरि को
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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