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उपदेश-प्रासाद - भाग १
उससे मैं प्रमाद को छोड़कर और उपासक प्रतिमाओं का अंगीकार कर जिन की भक्ति से पालन करता हूँ। प्रभात में अपने ज्ञाति कुल को वस्त्र, आहार आदि से संतुष्ट कर और ज्येष्ठ-पुत्र पर गृह के भार का आरोपण कर स्वयं ने प्रतिमा वहन की । प्रथम छह आकारों से रहित और शंका आदि अतिचारों से रहित हुए उसने मास पर्यन्त सम्यक्त्व प्रतिमा का आचरण किया । उसे पूर्व-क्रिया से युक्त इस प्रकार सर्वत्र जोड़ें। उसने दो मास पर्यंत द्वादश-व्रत का पालन किया । तत्पश्चात् वह तीन मास तक सामायिक-प्रतिमा में स्थित हुआ था । वह चार मास तक चारों पर्व में पौषध का पालन करता था । उसने पौषध से ही चार प्रहरोंवाली रात्री में पाँच मास तक कायोत्सर्ग को किया । पूर्व की क्रियाओं में तत्पर उसने छट्ठी प्रतिमा में छह मास तक ब्रह्मचर्य का पालन किया । पूर्व की क्रियाओं में तत्पर उसने सातवी प्रतिमा में सचित्त-वर्जन किया । उसने आठवी प्रतिमा में आठ मास पर्यंत स्वयं ने आरंभ का त्याग किया । उसने नवमी प्रतिमा में नव मास पर्यंत नौकरों का प्रेषन रूपी आरंभ का वर्जन किया । दसवी प्रतिमा में वह अपने लिए बनें हुए भोजन को नहीं लेता था । ग्यारहवी प्रतिमा का स्वरूप यह हैं- उस्तरे से अथवा लोच से मुंड होकर, रजोहरण और पात्र को लेकर श्रमण के समान हुआ धर्म को काया से स्पर्श करता हुआ विहार करता हैं।
इस प्रकार ग्यारह मास पर्यंत किया । इस तरह से इन ग्यारह प्रतिमाओं को भी करता हुआ वह पाँच वर्ष और पाँच महिनों से बाहर तथा अंदर से कृश हुआ। तब उसने दुर्बलत्व को जानकर चार शरण पूर्वक अनशन को ग्रहण कर स्थित हुआ। तब उसे मन की शुद्धि से अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ।