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-60000 “सांच को आंच नहीं" (209602
वास्तविकता तो यह है कि जहाँ-जहाँ पर मूर्ति या मूर्तिपूजा की बात आगमों में आती है, वहाँ-वहाँ पर या तो उटपटांग अर्थ करके या तो प्रक्षेपप्रक्षेप के मिथ्या आरोप से उसको उड़ाने की इनकी मानसिकता से स्पष्ट समझा जाता है कि लेखक को सत्यता का आग्रह नहीं है, परंतु पक्षराग का अभिनिवेश भरा पड़ा है । शांति से कोई सुज्ञ व्यक्ति विचार करें तो यह सरलता से समझ जाएगा की शास्त्रों एवं अन्य टीका - प्रकरणादि में जगहजगह पर मूर्ति-मूर्तिपूजा को घुसाडने का प्रयोजन उस काल में था ही नहीं क्योंकि मूर्ति विरोधी पक्ष ही नहीं था । सभी विद्वान् एकमत से स्वीकारते है कि करीब ५०० वर्ष से ही लोकाशाह से यह विरोध चालु हुआ है । अतः लेखक एवं उनके पक्षधर पूर्वाचार्यों पर नहीं परंतु गणधरचित सत्य आगमों पर ही प्रक्षिप्तता का झूठा कलंक दे रहे हैं। - अनेक इतिहासकार स्पष्ट मानते हैं कि चैत्यवासियों में शिथिलता होने पर भी जैनागमों में एक अक्षर भी परिवर्तित करने से वे भयभीत थे । प्रक्षेप परिवर्तन तो निष्ठुर बनकर लेखक के पक्षधर ही कर रहे है । चोरी को छिपाने के लिये दुसरों पर गलत आक्षेप दे रहे हैं । “चोर कोटवाल को डंडे” नीति अपना रहे है । प्रमाण के लिए देखिये ।
इतिहास वेत्ता पं. श्री कल्याण वि.म. के शब्द - जैन आगमों में कांटछांट :
लौंकामत का प्रादुर्भाव विक्रम सं. १५०८ में हुआ था और इस मत में से १८वीं शती के प्रारम्भ में अर्थात् १७०९ में मुख पर मुहपत्ति बांधने वाला स्थानकवासी सम्प्रदाय निकला, इत्यादि बातों का विस्तृत वर्णन लौकागच्छ की पट्टावली में दिया जा चुका है । शाह लौंका ने तथा उनके अनुयायी ऋषियों ने मूर्तिपूजा का विरोध अवश्य किया था, परन्तु जैन आगमों में काटछांट करने का साहस किसीने नहीं किया था।
सर्वप्रथम सं. १८६५ में स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी ने “समकितसार” नामक ग्रन्थ लिखकर मूर्तिपूजा के समर्थन में जो आगमों के
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