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" सांच को आंच नहीं"
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विद्धद्धर्य श्री पुण्यविजयजी म.सा. को अतिप्राचीन अगस्त्यसिंहसूरिजी की चूर्णि मिलने पर उन्होनें अपनी मान्यता बदलकर नियुक्तिओं को अतिप्राचीन स्वीकार किया है, जो बात उन्होंने बृहत्कल्प के आमुख में स्पष्ट की है । अत: उनकी पुरानी बात को दोहराना कदाग्रह है ।
‘७२ शास्त्रों में से किसी में भी श्रावक अथवा साधु के द्वारा मूर्तिपूजा या मंदिर निर्माण का उल्लेख नहीं है ।' इस प्रकार के और भी अनेकबार किए गये लेखक के उल्लेख सम्प्रदाय अभिनिवेश ही है ।
प्राचीनकाल में प्रतिमाशतक (महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. सा.) आदि अनेक ग्रंथो में, एवं वर्तमान में भी ३२ आगमों में मूर्तिपूजा, मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास, प्रतिमापूजन, जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा आदि अनेक ग्रंथों में सप्रमाण सचोट आगमों के मूर्ति और मूर्तिपूजा के पाठों की सिद्धि होने पर भी अभिनिवेश से उनके विरुद्ध अर्थ करने उनको प्रक्षिप्त कहना और वापिस ‘आगमों में मूर्तिपूजा नहीं है' ऐसी बकवास करना, महाअभिनिवेश के सिवाय शक्य नहीं है ।
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लेखक श्री के 'हाथी के दाँत खाने के अन्य, दिखाने के अन्य', 'दुहरी चाल चलना वगैरह दिये हुए आक्षेप अज्ञानतापूर्ण है । हम आगमशास्त्र और आगमेतेर शास्त्र दोनों को प्रमाण मानते हैं । प्रामाण्य में फरक जरुर पडेगा । जैसे आप अंग और उपांग दोनों ३२ सूत्रों में होने परभी प्रामाण्य में फरक मानते है । जैसे केवलज्ञानी अवधिज्ञानी दोनों प्रमाण होने पर भी प्रामाण्य में तरतमता है । उसी प्रकार पूर्वाचार्यों के ग्रंथ भी कोई आगममूलक, कोई पूर्व में से उद्धृत, कोई अविच्छिन्न परंपरामूलक होने से प्रमाण ही माने जाते है, परंतु आगम और आगमेतर पूर्वाचार्यो के ग्रंथ की प्रामाण्यता में तरतमता रहेगी । अतः ४५ आगम में उनको गिनने का प्रश्न रहता ही नहीं है । स्थानकवासी ३२ सूत्रों के सिवाय सभी पूर्वाचार्यों के ग्रंथ भी अप्रमाण गिनते है और हजारों बातें पूर्वाचार्यों के ग्रंथों की लेते है, आचरते है, मानते हैं, फिरभी वे प्रमाण नहीं, प्रमाण नहीं का स्टण करते है । अब विचार कीजिये 'हाथी के दाँत खाने के अन्य, दिखाने के अन्य ' 'दुहरी चाल चलना' वगैरह बातें हमको लागु होती है या आपको ?
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