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6000 “सांच को आंच नहीं” (0902 शिष्य उपाध्याय कमलसंयम । _३. वि. सं. १५४४, मुनिश्री वीकाकृत 'उत्सूत्र निराकरण बत्रीसी' ।
४. वि. सं. १५७८ 'दयाधर्म चोपाइ' लेखक - लोकागच्छीय यति भानचंद्र
... ५. 'लोकाशाह का सिलोका' लेखक-लोकागच्छीय यति केशवजी ऋषि - १७ वी सदी - 'आ सर्व अटले पांचेय लेखको लोकाशाह ना अवर्णवाद बोलवा माटे नथी लख्यु पण ते वखतनी परिस्थिति जणाववा माटे लख्युं छे । अने पहेला त्रण लेनकोओ लोकाशाह नी मान्यता जैन धर्म अने जैन सिद्धांत विरुद्ध छे ते बताववा माटे सूत्रोनी साखो टांकीने लखेलु छे अटले शंकाने स्थान रहेतुं नथी । तेथी स्थानकवासीओ मताग्रही, हठाग्रही बनवा के रहेवा मांगता न होय, तो तेमणे सत्य जाणवू जोइओ, सत्य कबुल करवू जोइसे अने खोटी मान्यता छोडवी जोइओ ।' पृ. ३४७ _ 'लोकाशाह एजे धार्मिक क्रियाओं वगेरेनो बहिष्कार अथवा निषेध . करेलो ते बाबत लोकागच्छना यतिओओ, मूर्तिपूजक यतिओओ, दिगंबर
लेखकोओ तथा तपगाच्छना विरोधी कडुआशाह वगेरेओ, बधाो अकसरखी रीते अकसरनी ज वात करी छ । तो शुं ओ बधाज लोकाशाह ना विरोधी हता ? नही ज, अथी पण पूरवार थाय छे के लोकाशाह संबंधी प्राचीन लेखकोओ जे लख्युं छे ते साचुं ज लख्युं छे । छता ते साहित्यने साचु नहि माननारने दुराग्रही, कदाग्रही अने हठाग्रही ज कही शकाय अने ए आग्रहो मिथ्यात्वना ज अंशो गणी शकाय ।' पृ. ३५० - ___इसके अलावा ६. 'तरण तारण श्रावकाचार' दिगंबर तारण स्वामी १६ वी सदी और ७. 'भद्रबाहु चरित्र' दिगंबर रत्ननंदी १६ वीं सदी, ये दो कृतियाँ भी मिलती है, उनमें भी उपरोक्त पांच कृतियों में बतायी बातें हैं।
उपरोक्त सभी कृतियों में भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलने पर भी लोकाशाह का जैन साधुओ द्वारा अपमान हुआ, इस विषय में एकमत है।
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