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________________ "सांच को आंच नहीं " कारण, संसार भ्रमण का कारण बताया है । गृहस्थ के लिये वही हितकारी होता है । जिससे महानिशीथ के पाठ से मूर्तिपूजा का विरोध होता ही नहीं है । देखिये महानिशीथ सूत्र तृतीय अध्ययन में स्पष्ट पाठ है : ‘तेसिय तिलोयमहियाण धम्मतित्थगराण जगगुरुणं भावच्चण दव्वच्चण भेएण दुहच्चणं भणियं भावच्चणं चरिताणट्ठाण - कठुग्गघोरतवचरण, दव्वच्चणं, विरयाविरयसील पूया सक्करदाणाई । तो गोयमा एसत्थे परमत्थे । तं जहाभाक्च्चण-मग्गविहारयाय दव्यच्चणं तु जिन पूया । पढमा जईण दोन्निवि गिहीण । इस प्रकार स्पष्ट पूजा के दो भेद बताकर मुनि को भाव पूजा ही है, श्रावक को द्रव्य-भाव यह दोनों पूजा है । इस परमार्थ सत्य को महानिशीथ सूत्र में बताया गया है । आगे लेखक श्री “प्रश्नव्याकरण - आचारांगादि सूत्रों में भगवान ने धर्मोपदेश में जीवों की रक्षा - दया - वैराग्यादि का उपदेश देने का बताया है, मंदिर मूर्ति आदि का उपदेश देने का कहीं भी नहीं कहा ” ऐसा बता रहे है । उन्होंने यह विचार नहीं किया कि परमात्मा ने उपदेश में गायों को घास, कबुतर का चुग्गा (जिनमें एकेन्द्रिय की हिंसा होती है), स्थानकादि बनवाना, साधर्मिक की भक्ति करना वगैरह भी नहीं बताया, तो क्या वे सब वर्जित है ? इन सब में हिंसातो होती ही है । आगे लेखक ने व्यवहार चूलिका का चंद्रगुप्त के १६ स्वप्न में चौथे पांचवे स्वप्न के फल का पाठ देकर निष्कर्ष निकाला कि उस समय जिनप्रतिमा - मंदिर नहीं थे, तभी स्वप्न के कुप्रभाव से यह होना लिखा । परंतु उनकी यह कल्पना गलत है । श्रावक मंदिर - मूर्ति बनवाने - पूजन के अधिकारी है । साधु केवल भावपूजा के अधिकारी है, परंतु काल के प्रभाव से कितनेक साधु वेशधारी पतित होकर नहीं करने के काम करेंगे । इसलिए वहाँ स्पष्ट 'लोभ से करेंगे' लिखा है । अतः लेखक की कुकल्पना व्यर्थ है । वैसे तो पं. कल्याणविजयजी ने निबंध निचय में उस व्यवहार चूलिका को कृत्रिम कहा है, इसलिए वस्तुत: यह प्रमाणभूत नहीं है । 42
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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