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________________ 4-60 “सांच को आंच नहीं” (0902 ___४. बौद्ध ग्रंथ महावग्ग १-२२-२३ में, महात्मा बुद्ध सबसे पहले राजगृह में गये । वहां सुप्पतित्थ - सुपार्श्वनाथजी के मंदिर में उतरे थे। . ५. पुरातत्त्व के अनन्य अभ्यासी डॉ. प्राणनाथजी का मत है - ई. सन् के पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी में जैनियों के अंदर मूर्ति का मानना, ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है । ऐसे अनेक उदाहरणों से भगवान महावीर के पूर्व में भी मूर्तिपूजा थी। आगे लेखकश्री कोणिक के वर्णन में, एक भी मंदिर का वणर्न नहीं होना, उपासकदशांग में दश-श्रावकों के मंदिर वगैरह बात नहीं होना, वगैरह बातें बता रहे है, वह अज्ञता या कदाग्रह है। आगमकार अशाश्वत चैत्यों का वर्णन कितना करें ? वे कालक्रम से नष्ट होते हैं, अन्य आपत्तिओं से भी नष्ट होते रहते हैं, इसलिए उनका विस्तृत वर्णन नहीं किया है। शाश्वत चैत्यों का आगम में अनेक स्थलों में वर्णन मिलता ही है, विस्तृत वर्णन भी आता ही है । सामान्य से चैत्य शब्द से जिनमंदिर तो आगमों में भी अनेक स्थानों पर बताये ही है । कोणिक की चंपानगरी के वर्णन में भी मूलसूत्र में 'अरिहंत चेइय जणवय विसण्णिविट्ठ पाठांतर स्पष्ट है, जो १००० साल पूर्व भी विद्यमान था उस पर टीकाकार ने टीका भी की है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है, कि कोणिक की चंपानगरी में अनेक जिनमंदिर थे । इसकी विशेष जानकारी के लिये देखिये 'जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा' में 'चंपानगरी और अरिहंत चैत्य' की समीक्षा। ___समवायांग सूत्र में विषय निर्देश में उपासकदशा में आनंदादि श्रावकों के जिनमंदिरादि बताये हैं। वर्तमान में सूत्र संक्षेपादि कारणों से वे उपासकदशांग में दिखायी नहीं देते । इसकी विस्तृत सिद्धि 'जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा' पृ. ११५ से जान लें। इस प्रकार औपपातिक आदि आगमों में जिनमंदिर के स्पष्ट पाठ होते हुए भी उसके अंट-संट ‘टाउन होल' वगैरह अर्थ करना और फिर शोर मचाना, आगम में कही भी जिनमंदिर के पाठ नहीं है, यह इनकी कुनीति रही है। जहां पर पाठ का अर्थ पलटना शक्य ही नहीं, ऐसे अंबड परिव्राजक वगैरह अधिकारों में प्रक्षेप-प्रक्षेप का बकवास करना । अरे ये ! मूर्तिपूजा के द्वेष में ( 17
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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