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-6000 “सांच को आंच नहीं” (0902 परमात्मा के स्थापना निक्षेप से दूर करते हो, इसलिए वे गुरुमूर्ति में प्रवृत्ति करते हैं । अपने पिता के फोटो पर पैर रखने की कोई नास्तिक भी प्रवृत्ति नहीं करेगा। यह व्यवहारिक प्रवृत्ति - निवृत्ति ही बता रहे है, प्रभु का स्थापना निक्षेप तथ्य है - अनादिसत्य है - पूजनीय है - वंदनीय है।
. आगे लेखकश्री डींगे लगा रहे है - “२००० साल में तुममें एक भी ऐसा विद्धान नहीं हुआ, जिसने ४५ आगमों पर अकेले ने टीका की । स्थानकवासी एक ही आचार्य ने ३२ आगमों पर टीका की।” इससे पाठक खुद ही विचार करें, लेखक को पूर्वाचार्य अपने लगते हैं या पराये ? और सपूत बनने जा
रहे है !
- सत्य बात तो यह है कि स्थानकवासी आचार्य घासीलालजी ने ३२ आगम पर पूर्व टीकाकार शीलांकाचार्य और अभयदेवसूरिजी के आधार पर स्वकल्पित टीकाएँ रचवायी हैं, जिसमें मन्दिर और मूर्ति संबंधित सत्य शास्त्र पाठों को झुठलाया है । इसलिए स्थानकवासी संत विजयमुनिजी शास्त्री के शब्द ही पढिए - ___ “पू. घासीलाजी म. ने अनेक आगमों के पाठों में परिवर्तन किया है तथा अनेक स्थलों पर नये पाठ बनाकर जोड दिये हैं । इसी प्रकार श्री पुष्पभिक्षुजी म. ने अपने द्वारा सम्पादित “सुत्तागमे” में अनेक स्थलों से पाठ निकालकर नये पाठ जोड दिये हैं । बहुत पहले गणि उदयचन्दजी म. पंजाबी के शिष्य रत्नमुनिजी ने भी दशवैकालिक आदि में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण पाठ बदले थे । शास्त्रीय परंपरा के अनुसार आगमों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिये । और तो क्या, अक्षर मात्रा तक बदलने पर भी कठोर प्रायश्चित का विधान है।” (अमर भारती दिसम्बर १९७८ पृष्ठ ९४)
देवेन्द्रमुनि शास्त्रीजी ने भी उनकी टीकाओं के लिए लिखा है कि "कई विषयों में पुनरावृत्तियाँ भी हुई है । परम्परा की मान्यताओं को पुष्ट करने का लेखक का प्रयास रहा है। (जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा पृ. ५५१)” ____“आगम द्वारा तो मंदिर - मूर्ति की सिद्धि हो रही है, जिससे अनेक स्थानकवासी साधुओं ने असत्य का त्यागकर सत्य मार्ग को अपनाया और आगे
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