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4-6000 “सांच को आंच नहीं” (0902 से इन दोनों गृहस्थों ने जैनधर्म में भयंकर फूट और कुसम्प डालकर जैनशासन को छिन्न-भिन्न कर डाला, जिसके साथ असंयति पूजा नामक अच्छेरा कां भी प्रभाव पड़ा कि दोनों ग्रहस्थी असंयति होने पर भी श्रमण-श्रमणीओं की उदय उदय पूजा उडाकर स्वयं को पूजवाने की कोशिश करने लगे।
तीनों काल में यह असंभव है, कि प्रभु का शासन असयंति से चले और स्थानकवासी अपने को उनकी (लौकाशाह की) संतान मानते हैं, तभी तो लेखक श्री ने लिखा वैसे “आकाश से टपकने" जैसी ही बात हुई ना ?
कोई पुत्र अपने पितादि को गालियाँ देवें - उनकी आज्ञा न माने और फिर धरोहर पर हक जमाने की कोशिश करें, उसे सपूत कहेंगे या कपूत ? पूर्वाचार्यों की निंदा करना, 'उन्होंने शास्त्र में पाठ घुसेडे, टीकाकारों ने गलत अर्थ किये,' वगैरह मिथ्या आरोप उनपर लगाना और फिर कहना हम उनके सपूत है । लेखक श्री ! आपकी बुद्धिमत्ता की कमाल है ! देखिए लेखक खुद ही पृ. ३२ पर कहते है, "टीका, चूर्णि, नियुक्तियों में कहां क्या - क्या डाला होगा, इनकी करतूतों को भगवान ही जाने” । है ना ! इस प्रकार पूर्वाचार्यों की निंदा करनेवाले कलिकाल के सपूत !
अभी सिरोही के पटनी को कौन पुछने जावें, वे तो है ही नही ! उनके नाम पर कुछ भी कह सकते है । वह प्रामाणिक नहीं गिना जा सकता। ___लेखकश्रीने पू. पुण्यविजयजी और पू. जंबूविजयजी जैसे, विद्वानों द्वारा मान्य, महापुरुषों पर भी कीचड उछालने में कमी नहीं रखी । दीपरत्नसागरजी के संपादन में बहुत ही गलतियाँ है, वे बिना संशोधित छपवाते है । अत: उनके संपादन विशेष उपयोगी न होने से पू. जंबूविजयजी ने वैसे शब्द कहे हो सकते है । पू. जंबूविजयजी म. का. संपादन और दीपरत्नसागरजी के संपादन में जमीन- आसमान का फर्क है । क्वॉन्टिटी कितनी भी हो, क्वॉलिटी न हो तो उसकी कीमत विशेष नहीं होती है।
श्रमण संघ के इंदौर सम्मेलन में स्वसंप्रदाय के अनुकूल कुछ नियम बने भी हो तो भी उनका पालन करना अशक्यप्राय है । ऐसे तो पूर्व में भी नियम बने और उड गये । चूँकि स्पापना निक्षेप अनादिसत्य है । उसमें जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती ही है। आप, लोगों को त्रिलोकपूज्य अरिहंत
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