________________ . कल्पित कृति से सावधान अभी-अभी हाथ में एक बनावटी कृति आयी है। जिसका नाम 'समुत्थान सूत्र है। त्रिलोकचंद जैन (भूतकालीन / चारित्र तिलोकमनि) जिसके संपादक है। 'जैसी दे वैसी मिले कुँए की गुंजार पुस्तिका का अधिकांश मेटर अंत में परिशिष्ट 47 . और 5 में लिया है। जिससे गुंजार पुस्तिका के गुमनामी तीर फेंकने वाले छुपे रुस्तम भी ये ही होने चाहिए. ऐसा अनुमान होता। है। अस्त...1 - पुस्तक के सम्पादकीय' के निरीक्षण से चोर की दाढ़ी में तिनाका' जैसा अनुभव हुआ है। संपादक को खुद को इस में| कल्पित कति का अनुभव हो रहा है। तभी तो 'अपने पूर्वग्रह के कारण अति होश्यार कोई साधू यह कहे कि इसमें किसी की। उपज का असर है. अतः हम इसे आगम रूप में नहीं स्वीकार करते हैं, तो यह व्यक्तिगत आग्रहमात्र है। ऐसे विचार प्रकट हए।। फिर भी पुस्तक में अपने पक्ष (स्थानकवासी) की सिद्धि के किसी भी आगम में अंशमात्र भी दृष्टिगोचर न होते कल्पित पाठ मिलने / से संपादक' यह सत्र भी जिनवाणी संमत विषयवाला है, इसलिये अवश्य सम्माननीय है। इस प्रकार लिखते है-- प्रायः ये ही संपादक -गुंजार' पुस्तक में भदाहुस्वामी रचित अनेक प्रमाणों से सिद्ध कल्पसूत्र को प्रामाणिक न मानकर कल्पित मानते है और अभी 100 साल पूर्व की कल्पित कति को अपने पक्ष की सिद्धि होती है. इसलिये आराम कोटी में गिनते। हैं। जो अपने कल्पित मत की सिद्धि करता है वह जिनवाणी संमत और जो अफने कल्पित मत की असिद्धि करता हो (चाहे वह गणधर रचित सत्य आगम भी क्यों न हो) वह अप्रामाणिक यह संपादक का नापदंड केवल मिथ्यात्व प्रयुक्त आभिनिवेश भरा स्पष्ट दिखाई दे रहा है। समुत्थान सूत्र' की रचना पद्धति को खुद संपादक 12वीं से 14वीं सदी की मान रहे हैं, तो स्वतः सिद्ध होता है यह विशिष्ट / पर्वधरादि ज्ञानिओं से रचित कति नहीं है. तो आगम कैसे मान रहे हैं? सम्पूर्ण विश्व में रोडी गाँ में भंडार में ही केवल / जीर्ण प्रत। थी. इसकी दूसरी प्रत कहीं पर भी नहीं है, ऐसी कपोलकल्पित बातों पर कोई भी तटस्थ व्यक्ति विश्वास नहीं कर सकता। वास्तविकता यह लगती है-100 साल पूर्व गणिवर्य उदयचंद्रजी म. के शिष्य प. श्री रत्नचंद्रजी को यह प्रत हनुमानगढ़। चातुर्मास में प्राप्त हइ। इसका मतलब उदयचंद्रजी गणि का 110 वर्ष पूर्व सं. 1962 में नाभा राजसभा में मुनिश्री वल्लभविजयजी से। महपत्ती बाबत वाद हुआ, उसमें उदयचंदजी की बुरी तरह हार हुई जिसका फैसला अपनी इसी पुस्तिका में पीछे दिया हुआ है। इसके बाद स्थानक वासीओं की अपकीर्ति हई और उनमें से अनेक साधु संवेगी बनने लगे। इसलिये उन्होंने 'चोर कोटवाल को / डड नीति अपनाकर उल्टा प्रचार चाल किया और पीतांबर पराजय' नामक छोटी बुक छापी। उसी काल में इस बनावटी कति / की उत्पत्ति हुई हो, यह संभव है। इसका कारण यह है 1. कृति में पृ. 24-25-26 में कपोलकल्पित दौर से मुँहपत्ती मुँह पर बाँधनी यह साधुलिंग है, वगैरह बातें लिखी है।। 2. 30 पर 'उपासक दशा में आता सम्यक्त्व का आलावा अरिहंत चेइयाई' निकल जाए इसलिये, नया मनघडत / आलावा बनाया है। 3.4.61-63 पर तिखत्ता के पाठ से गुरुवंदन करना। 4.प. 129 पर आगमों में अंशमात्र भी नहीं मिलता ज्ञानार्थक चेइय शब्द देकर अपने पक्ष की सिद्धि की कोशिश की है। 5. पृ. 175 पर जिनकल्पी भी हमेशा मुंहपर मुँहपत्ती बाँधते हैं। 6.प.201 पर परमात्मा के जन्मनक्षत्र पर भस्मग्रह संक्रम के बाद बहुत सारे। मुनि मुंह पर से मुँहपत्ती निकालकर द्रव्य लिंगधारी बनेंगे। 74 202 पर भस्मग्रह के उत्तरने पर साध-साध्वी और श्रावक-श्राविका की भी उदय-उदय पूजा होगी। 8. प. 203 पर जो प्रकतिभद्रक भी जीव जिनप्रतिमा निर्माण कराएगा अथवा उसकी प्रतिष्ठा करवाएगा, वह पापकम का बंध करेगा। भारेकर्मी जीव ऐसे कत्रिम-बनावटी कतियों को छापकर संसार को बढ़ाते है। इस अराजकता के काल में कौन-किसका। मुंह बंद कर सकता है? सुज्ञ भवभीरु ऐसी भेलसेल से सावधान रहें!!! - भूषण शाह - 1..पू. 202 पर