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" सांच को आंच नहीं"
कि जब बोलने की आवश्यकता नहीं तब मुंहपत्ति बांधनी नहीं है, अपितु हाथ में रखनी है - पाठ इस प्रकार है -
“ चउरंगुल मुहपत्ती उज्जूए डब्बहत्थ स्यहरणं वोसट्टचत्तदेहो काउस्सग्गं कहिज्जावहि || १५४५॥”
टीका - मुंहपत्ति उज्जुए 'त्ति' दाहिण हत्थेण मुहपोत्ति घेत्तत्वा डब्बहत्थे रहरणं कायव्वं ।
तथा
(द) “चिण्हट्टा उवगरण दोसा उ भवे अचिंधकरणम्मि ।
मिच्छत्त सो व राया व कुणह गामाण वहरकरण || ५३||”
टीका: परिहविज्जं अहाजायमुवगरणं ठवेयव्वं मुहपोत्तिया, रयहरणं चोलपट्टो य ।
इन दोनों पाठों से 'मुंहपत्ति को पास में रखना' यही लिंग सिद्ध होता
है ।
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(2) तथा योगशास्त्र के वंदन अधिकार में आते ‘प्रव्रज्याकाले च गृहीतरजोहरणमुखवस्त्रिक.....' 'वामंगुलिमुहपोत्तीकरजुयलतलत्थजुत्तरयहरणो .....' ‘वामकरगहिअंपोत्तीएगट्टेसेण वामकन्नाओ....' इन पाठों से भी हाथ में मुंहपत्तिरखना ही शास्त्र सम्मत साधुलिंग सिद्ध होता है । हाथ में मुंहपत्ति रखना मुनिलिंग होते हुए भी, २४ घंटे मुंहपत्ति बांधकर ही रखने पर ‘लिंगभेद' का महान् दोष लगता है ।
इसलिए “जुए पड़ जाती है, तो सिर काटने की मूर्खता” नहीं करनी
चाहिए ।
(४) 'जयं भुजंतो भासतो,' पावकम्मं न बंधई दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा में यत्त्रा पूर्वक भाषण करने का लिखा है । सो हमेशा मुंह बंधा हुआ होवे तो यत्ना करने की कुछ भी जरुरत नहीं रहती, किन्तु हंमेशा मुंह खुल्ला हो तभी मुख की यत्ना करके बोलने में आता है, इसलिये इस पाठ से भी हमेशा मुख बन्धा रखना कभी सिद्ध नहीं हो सकता और खुल्ला रखना व
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