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________________ -6000 “सांच को आंच नहीं" D 960 जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधड़ । (दश. ४ अध्ययन) के द्वारा प्रमाद रहित यतना करने वाले साधु को द्रव्य से हिंसा होने पर भी पाप-कर्म का बंध नहीं होता है, ऐसा बताया है। ___(३) कर्मसाहित्य भी इसी बात को पुष्ट करता है, वह इस तरह : जब तात्त्विक हिंसा होती है, तब अशातावेदनीय कर्म का बंध होता है, जब कि छठे (प्रमत्त) गुणस्थानक के बाद अशातावेदनीय का बंध विच्छेद बताया है, यानि कि ७वें और उसके उपर के गुणस्थानकों में तात्त्विक हिंसा (हेतु अनुबंध) नहीं होती है और प्रमाद है वहाँ हेतु हिंसा होने से अशाता का बंध है। आगमों में बात आती है कि केवलज्ञानी भगवंत या अप्रमत्तमुनि उपयोग पूर्वक चलते हो और अगर उनके पैरों के नीचे काई संपातिम जीव आ जाए तो भी उन्हें उसकी हिंसा का पाप नहीं लगता है। उसी तरह शास्त्रोक्त विधि के अनुसार हाथ से मुंहपत्ति को मुंह के आगे रखकर बोलने में होने वाली वायुकाय के जीवों की हिंसा में दोष नहीं लगता है, यह समझ सकते हैं। . अगर प्रमत्त साधक नीचे देखें बिना चलता है और कोई जीव नहीं मरता है, तो भी उसे हिंसा का दोष लगता है, क्योंकि वहाँ प्रमाद रुपी भावहिंसा (हेतु हिंसा) चालु है । ____ अतः प्रमाद है वहाँ हिंसा होती है, अप्रमाद में अहिंसा है । अब देखो । मुंहपत्ति बांधे रखने में प्रमाद एवं जीवदया के परिणाम के सातत्य का अभाव . किस तरह होता है। - जिज्ञासु :- कैसे होता है ? जरा उदाहरण देकर बतायें ! यह बहुत गहन विषय लग रहा है। __सद्गुरु : जैसे कोई चप्पल पहनकर चलता है, उसे कंटक आदिका भय नहीं होने से उसका उपयोग नीचे देखने में नहीं रहता है । अगर उपाश्रय - स्थानक में दिन भर रजोहरण से कोई प्रमार्जन करते हुए चलता है और नीचे देखने में ध्यान नहीं रखता है तो, जीव की हिंसा नहीं होने पर भी वहाँ ईर्यासमिति का उपयोग नहीं रहने से जीवदया के भाव नहीं कहे जाते है और उसे प्रमाद ही कहा जाता है। 113
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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